शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

हरसिंगार की महक !......



यहीं
इसी
हर सिंगार के नीचे
जब धवल पुष्प 
एक एक कर झर रहे थे
हमारे तन पर .
हमारे चारों तरफ ,
तुम
मेरे सीने पर
अपनी उँगलियों से
लिख रही थी
मेरा ही नाम
यूँ ही !

प्रकृति
एकदम मौन थी
जैसे अभी शब्द की
उत्पत्ति ही नही हुई हो
समय भी
तनिक सा रुक गया था
मानो वो भी
साक्षी होना चाह रहा था
इस परमात्मिक प्रेम का !

चाँद
टकटकी लगाए
देख रहा था
हमारे
मोद को
मिलन को
प्रेम को ,
हमारी डूबन को
हमारी समाधि को !

सहसा
चाँद ने
शुभ्र चांदनी की
एक चादर
डाल दिया हमारे ऊपर
और
मुस्कराकर
अपनी मंजिल को चल पड़ा !

धीरे धीरे ...
हम ढक गये
हरसिंगार  के श्वेत पुष्पों से 
देखो न
हमारी सांसें
अभी भी
वैसी ही
महक रही हैं  !!


  -आनंद द्विवेदी २८/१०/२०११ 

15 टिप्‍पणियां:

  1. पूरी कहानी कह डाली आपने हरसिंगार की खूबसूरती सी.
    बहुत सुन्दर.

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  2. धीरे धीरे ...
    हम ढक गये
    हरसिंगार के श्वेत पुष्पों से
    देखो न
    हमारी सांसें
    अभी भी
    वैसी ही
    महक रही हैं !!......bahut hi touchy ....
    yun hi mahakti rahe sansen jab tak chalti rahen....aur fir ye mahak rooh ke sang is lok se us lok tak jaye .....har lok mehkaye .....:)) romantic one ....

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  3. बहुत सुन्दर और कोमल से एहसास लिए खूबसूरत रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. मिलन को बेहतर भावों के साथ अभिव्यक्त किया है ........खुबसुरत अहसास

    जवाब देंहटाएं
  5. मैने तो कल ही कह दिया सब कुछ अब और क्या कहूँ आनन्द जी……………मेरे मन के भावो को जैसे आपने शब्द दे दिये।

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  6. फूल हरसिंगार के रात महकती रही..
    साथ-साथ हम भी...

    खूबसूरत.....

    ***punam***

    tumhare liye..
    bas yun..hi..

    जवाब देंहटाएं
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