गुरुवार, 17 नवंबर 2011

मैं प्रस्तुत हूँ !



एक दिन
जब मैं आसमान पर
चाँद को
चूम रहा था |
एक जन्मजात चोर
मेरे सारे सपने
चुरा रहा था
यहाँ
धरती पर |
वो सपने
जो किसी और के
काम के नहीं हैं
थोड़ी देर खेलेगा वो
उनसे
और फिर फेंक देगा
तोड़ मरोड़  कर |

अब सोंचता हूँ
कुछ तो वजह होगी ही
जब  तूने
इस नायाब दर्द के लिए
मुझे चुना है |
तो फिर कर इन्तेहाँ
सितम की अपने
क्योंकि जानता हूँ मैं
यह तो
आगाज़ है अभी |

अय 'छलिया' !
मेरे पास
और कुछ था ही नहीं
सो मैंने भी
तुझे दांव पर लगा दिया
अब
इस खेल में
हारेगा भी तू
और जीतेगा भी तू ही
आ जा ....
मैं प्रस्तुत हूँ !!

- आनंद द्विवेदी १७/११/२०११

16 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, बिल्कुल अलग अंदाज में अस्तित्त्व को चुनौती देती रचना..

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  2. अब सोंचता हूँ
    कुछ तो वजह होगी ही
    जब तूने
    इस नायाब दर्द के लिए
    मुझे चुना है |
    तो फिर कर इन्तेहाँ
    सितम की अपने
    क्योंकि जानता हूँ मैं
    यह तो
    आगाज़ है अभी |
    Wah! Ekdam anoothee rachana!

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  3. वाह एकदम अलग अंदाज में उलाहना...सुन्दर.

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  4. बहुत सुन्दर अंदाज...खुबसूरत रचना..
    अभिव्यंजना में आप का स्वागत है...

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  5. इस खेल में
    हारेगा भी तू
    और जीतेगा भी तू ही
    आ जा ....
    मैं प्रस्तुत हूँ !!
    बहुत अलग अंदाज़ है ... अच्छी नज़्म

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  6. ठीक ही तो है...हारेगा भी तू ...जीतेगा भी तू......बढ़िया जी बढ़िया !!

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  7. अब सोंचता हूँ
    कुछ तो वजह होगी ही
    जब तूने
    इस नायाब दर्द के लिए
    मुझे चुना है |prayojan nimit hi sabkuch hai

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  8. अब सोंचता हूँ
    कुछ तो वजह होगी ही
    जब तूने
    इस नायाब दर्द के लिए
    मुझे चुना है |
    वाह ...बहुत खूब ।

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  9. वाह ... क्या बात है .. जीवन के इस खेल को वो छलिया ही तो खेल रहा है ... फिर जेट या हार तो उसकी ही होनी है ...

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  10. बहुत ही खुबसूरत अभिवयक्ति....

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  11. Ohooo direct panga.. bahut khub.. pasand aaya ye andaaz.. Chhaliya ko bhi to pata h k jis se joojh raha h wo usi ki mitti ka bana h :)

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  12. वाह क्या बात है....
    बढ़िया रचना...
    सादर बधाई

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