मेरी ज़िद
तुम्हारे झुमके में फँसा
चुनरी का वो हिस्सा है
जिसे तुम बड़े एहतियात से छुड़ाती हो,
उस घड़ी
खीझ और धैर्य का 'प्रयाग' होता है
तुम्हारा चेहरा
तुम्हारा उलाहना
मेरी कलम का खो गया वो कैप है
जिसके बिना
खतरे में है उसका अस्तित्व
कितना भी अच्छा लिखने के बावजूद,
उस घड़ी
इश्क़ की इबारत होता है
तुम्हारा उलाहना
मेरी जिद और तुम्हारे उलाहने
दोनों से
दो कोस और रह जाता है इश्क़
जब कभी खुले बाल लेकर तुम तय करती हो
ये दो कोस की दूरी
चंपा के फूल सी महक़ उठती हैं
इश्क़ की गलियाँ !
और दुआओं सा झरता है प्यार
हमारे जीवन की देहरी पर !!
ऐ सुनो न..
क्या मैं भी इस जनम में
ये दो कोस चल पाउँगा कभी ?
© आनंद
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