मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

आनंद मिल भी जाएगा वो पास ही तो है

ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी  देखिये

माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये

धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी  के साथ में बहकर भी देखिये

अपना ही कहा था  कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये

जन्नत से  देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त  मेरे साथ में   रहकर भी देखिये

'आनंद' मिल भी जाएगा  वो  पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये

-आनंद
१५-१०-२०१२ 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

आँसू और सुगंध ...



तुम से मिली उपेक्षा से चिढ़कर
बहुत सारी बुराइयाँ आ बैठीं मुझमे
और जितनी भी अच्छाइयाँ हैं मेरे अंदर
वह सब की सब तुम्हारी हैं
बात बात में टोकना तुम्हारा
मैं झुंझला जाता था भले प्रकट नहीं करता था
पर तुम इस सबसे अंजान
बना रही थी
एक इंसान अपनी सोंचो के अनुरूप
आवरण और अहं विहीन
नतीजा आने तक तो रुकते तुम ...
तुम्हें किंचित भय था
इस राह से वापस न लौट जाऊं मैं बिना किसी सहारे के
पाकर खुद को अकेला
मगर
कहाँ जाऊं लौट कर
दुनिया जो पीछे छूट गयी है उसमें ?
अर्थहीन हो चुके संबंधों में ?
या फिर शब्दों और चेहरों की रेलमपेल में ?
आश्वस्त हो जाओ
मुझे अब पीछे मुड़कर देखना भी अजीब लगता है
खो गया है कहीं मेरा होना
जिसे नहीं ढूँढना चाहता मैं दुबारा
मैंने पार कर लिया है
वह चौराहा
जिस पर लाकर छोड़ा था तुमने
छोड़ आया हूँ पीछे वो सब जो मैं जानता था
आगे कुछ भी पहले से जाना हुआ नहीं है
अब तो हालात यह है कि
अगर कोई अगरबत्ती न जलाए
तो मुझे
महीनों तुम्हारी याद भी न आये

आँसू और सुगंध
नहीं नहीं
पानी और हवा
मुझे आज भी चाहिए जीने के लिये |

- आनंद
९/१०/१२

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

अजीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया


हरेक  रिश्ता सवालों  के  साथ जोड़  गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ  समंदर के पास  छोड़ गया  

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं  कुव्वत थी 
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं  मुकम्मल वजूद  मैं  अपना 
कहीं से जोड़ गया वो  कहीं से तोड़ गया 

हर घड़ी  कहता था 'आनंद'  जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया 

-आनंद 
१४ मई २०१२ 

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

बेशक मैंने दुनिया को चुना




बीते कई दिनों
एक ग़ज़ल ऐसे लटकी है गले से
जैसे तेरी याद
कुछ शेर आये बाकी के नखरे ...
जब कोई चीज़ हलक में फँसी हो तो
दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता
जैसे लंगड़ डाली हुई गाय
कहने को छुट्टा छोड़ दी गयी हो चरने के लिये
पीड़ा को कहना ज्यादा मुश्किल है
बनिस्बत पीड़ा को जीने के
मैंने भी तो कहने का रास्ता चुना
तुम्हारी एक न सुनी
बेशक मैंने दुनिया को चुना
और सींचता रहूँगा अपने लहू से
इस क्यारी को
ताकि तुम इस में मनचाहे रंगों के फूल खिला सको
रोज बदल सको
रस रंग और सुगंध
आत्मा और आध्यात्म के नाम पर

आत्मा और आध्यात्म
सच में मुक्त करता है जीवन को
मगर उनको जिनके पेट भरे हों
जो भूखे हों उन्हें आध्यात्म नहीं
भगवान का ही सहारा होता है
और आत्मा
इसे भी मजदूर की देह से उतनी ही चिढ़ है
जितनी आध्यात्म को अज्ञान और मोह से
आत्मा को भाती है...
सन्सक्रीम, कोल्डक्रीम और माश्चरायज़र लगी त्वचा
गर्व से निवास करती है वो उसमें
और आध्यात्म ...
क्या कहूँ
तुम्हारा जीवन और तुम्हारा प्रेम
काफ़ी है सब कुछ कहने के लिये |


- आनंद
११-१०-२०१२

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

रहोगे न ?

हजार बार मन किया 
बेवफा कह दूं तुझे पर तेरी आँखें 
देखने लगती हैं मुझे एकटक 
मुझे वो तुम्हारा हिस्सा नहीं लगती 
वो न तो झुकती हैं 
न इधर उधर देखती हैं 
और न ही कोई बहाना करती हैं 
बस ऐसे देखती हैं 
जैसे कोई देखता है खुद को आईने में दिन भर के बाद 
मैं खुश हो जाता हूँ
तुम में कुछ तो है अभी बाकी मेरा
वफ़ा बेवफाई
दूरियाँ नजदीकियाँ
मिलन वियोग
प्रेम और प्रेम भी नहीं
ये तो सब जीवन का हिस्सा हैं
जब तक जीवन रहेगा ये सब रहेंगी ही
मगर तुम तो जीवन के बाद भी रहोगे
रहोगे न ?


चौरासी लाख कम नहीं होते यार
मुझसे अकेले
इतना चक्कर नहीं काटा जाएगा |


-आनंद
8-10-2012