शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

'अन्ना' 'बाबा' को भी अब भगवान होने दीजिये





खुद-ब-खुद ही झूठ सच का ज्ञान होने दीजिए
वरना बेहतर है,  मुझे नादान होने दीजिए

थक गया हूँ जिंदगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये

दो तिहाई से भी ज्यादा लोग भूखे हैं यहाँ
आप खुश रहिये इन्हें हलकान होने दीजिये

रात में हर रहनुमा की असलियत दिख जाएगी
शहर की सड़कें जरा  सुनसान होने दीजिये

बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम  इंसान होने दीजिए

उनके  दंगे ,  इनके घपले,  देश को महंगे पड़े  

'अन्ना' 'बाबा' को भी अब भगवान होने दीजिये

कौन जाने  आपको 'आनंद'  अपना सा लगे
साथ  आने  दीजिये,  पहचान  होने  दीजिये

- आनंद द्विवेदी
 जुलाई १३, २०१२ |


बुधवार, 11 जुलाई 2012

यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी





अभी निगाह में कुछ और ख्व़ाब आने दो
हजार रंज़ सही   मुझको   मुस्कराने दो

तमाम उम्र  दूरियों  में काट  दी  हमने
कभी  कभार मुझे पास भी तो आने दो

बहस-पसंद  हुईं  महफ़िलें  ज़माने  की
मुझे सुकून से तनहाइयों  में गाने  दो

सदा पे उसकी तवज़्ज़ो का चलन ठीक नहीं
ग़रीब  शख्स है उसको  कथा सुनाने दो 

किसी की भूख मुद्दआ नहीं बनी अब तक
मगर  बनेगी शर्तिया वो  वक़्त आने  दो

यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी
अभी नहीं, तो जरा इस जहाँ  से जाने दो

क़र्ज़ 'आनंद' गज़ल का भी नहीं रक्खेगा
अभी बहुत है जिगर में  लहू,  लुटाने  दो

- आनंद द्विवेदी
जुलाई ११, २०१२


बुधवार, 27 जून 2012

फिर न इसी शब की सहर हो








अल्लाह करे आप पर मौला की नज़र हो 
अल्लाह करे आपका खुशबू का सफ़र हो 

मेरे उठे हैं हाथ दुआओं में आज फिर  
अल्लाह करे मेरी दुआओं में असर हो 

तेरी नज़र के ज़ख्म को जन्नत बना लिया  

अल्लाह करे आपकी हर शय पे  नज़र हो

इक शख्स दबे पाँव  जहाँ से चला गया

अल्लाह करे आपको ये भी न खबर हो

'आनंद' अगर और शबे-ग़म हों राह में
अल्लाह करे फिर न इसी शब की सहर हो  


- आनंद   
२२ जून २०१२  


मंगलवार, 12 जून 2012

उसे रब न कहूँ तो भी...






गर अब पुकारना हो, तो तुझको क्या कहूँ मैं 
क्या अब भी दोस्त बोलूं या फिर खुदा कहूँ मैं 

कुछ तेरी गली वाले  कुछ  मेरे शहर वाले 
दोनों ही चाहते हैं,  तुझे  बेवफा  कहूँ  मैं

कुछ दिन से सोंचता हूँ तुझे भूल क्यों न जाऊं 

इसे क्या कहूं, हिमाकत ? या हौसला कहूं मैं

कभी जिस्म के सरारे कभी रूह की मुहब्बत
तुझे सिर्फ़ ख्याल समझूं या फलसफ़ा कहूँ मैं

अब भी तो तेरी खुशबू साँसों में महकती है
कभी गुल तुझे कहूं मैं कभी गुलशितां कहूं मैं

जिस शख्स ने अकेले इतने सबक दिए हों
उसे रब न कहूँ तो भी, रब की दुआ कहूँ मैं

उस दौर सा भरोसा 'आनंद' पर न करना
वो होश में नहीं  है उसे क्या बुरा कहूँ मैं
 
- आनंद   
१२ जून २०१२ !

सोमवार, 11 जून 2012

पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे






ऐ ख्वाब तेरी ये अदा भी, भा गयी मुझे
वो सामने  थे  और नींद आ गयी मुझे

पल भर को मेरी आँख तेरी राह से हटी
जाने कहाँ  से तेरी याद आ गयी मुझे

कुछ इश्क़ ने सताया कुछ जिन्दगी ने मारा
आख़िर को एक दिन तो मौत आ गयी मुझे

मैं आम आदमी हूँ आज़ाद  तो  हुआ था
पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे

तू जिंदगी है फिर तो जिन्दगी की तरह मिल
बन के भला रकीब, क्यों  मिटा गयी मुझे

तेरे महल से चलकर 'आनंद' की गली तक
तेरी दुआ  सलामत पहुंचा  गयी  मुझे

-आनंद
११ जून २०१२ !