सोमवार, 16 जनवरी 2012

मेरे साथ हमेशा सब की चल जाती मनमानी है




तेरी याद चली आयी या मौसम की शैतानी है
ऐसा क्यों लगता है जैसे फिर से शाम सुहानी है 

तेरी यादों की दुनिया भी जालिम तेरे जैसी है 
पल भर में अपनी लगती है पल भर में बेगानी है 

तेरे पिंजरे का ये पंक्षी कब का उड़ना भूल गया 
धड़कन तो चलती रहनी है जब तक दाना पानी है 

तेरी जिन राहों पर मैंने बंदनवार सजाये थे 
वो राहें तेरे क़दमों की आज तलक  दीवानी हैं 

तुझको यादों में आना हो या फिर आँख छलकना हो 
मेरे साथ हमेशा सब की चल जाती मनमानी है 

या तेरी यादों में डूबूं या जमुना में डूब मरूं 
जोड़-घटाकर  मेरे हिस्से दो ही बातें आनी हैं 

मेरी आती-जाती सांसें पिया मिलन में बाधक हैं 
सोंच रहा हूँ आखिर कैसे ये दीवार गिरानी है 

कल 'आनंद' मिला था मुझको गुमसुम खोया-खोया सा 
कुछ पूछो तो हंस पड़ता है, पर  आँखों में  पानी है  

- आनंद द्विवेदी १६-०१-२०१२ 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

मैं यही सोंचकर बाज़ार तक आ पहुंचा हूँ







बदगुमानी है, या ऐतबार तक आ पहुंचा हूँ,
जो भी हो आपके दरबार  तक आ पहुंचा हूँ

आज भी, उसको खिलौने पसंद हों शायद 
मैं यही सोंचकर बाज़ार तक आ पहुंचा हूँ 

जिसको देखो वो यहाँ  बेखुदी में लगता है  
मैं भी शायद दरे-सरकार तक आ पहुंचा हूँ 

मुझको मांझी का पता था न खबर मौजों की 
हौसला देखिये, मझधार  तक आ पहुंचा हूँ

मैं उसे खोजने  निकला था सितारों कि तरफ
खोजता खोजता संसार तक आ पहुंचा हूँ 

जबसे 'आनंद' के  हालात  नज़र से देखे
दिल्लगी!  मैं  तेरे इंकार तक आ पहुंचा हूँ

-आनंद द्विवेदी १२-०१-२०१२ 

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

जिंदगी की दास्ताँ, बस दास्तान-ए-ग़म नही



जिंदगी की दास्ताँ, बस दास्तान-ए-ग़म नही
इम्तहाँ भी कम नही, तो हौसले भी कम नही

करने वाले मेरे सपनों की तिजारत कर गये
हम सरे-बाज़ार थे पर हुआ कुछ मालुम नही

कुछ नकाबें नोंच डालीं वक़्त ने,  अच्छा हुआ
जो भी है अब सामने, गफ़लत तो कम से कम नही 

अय ज़माने के खुदाओं  अपना रस्ता नापिए
अब किसी भगवान के रहमो-करम पर हम नही

अब जहाँ जाना  है लेकर वक़्त मुझको जाएगा
मौत महबूबा है, लेकिन ख़ुदकुशी लाज़िम नही

रंज मुझको ये नहीं, कि क्यों गया तू छोड़कर
रंज ये है,  क्यों तेरे जाने का रंज-ओ-गम नहीं

अपने अब तक के सफ़र में खुद हुआ मालूम ये
लाख अच्छे हों,  मगर ऐतबार लायक हम नही

हिज्र की बातें करे या, वस्ल का चर्चा करे
आजकल 'आनंद' की बातों में वैसा दम नही

-आनंद द्विवेदी ३१/१२/२०११

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

डिफेक्टिव आइटम !



डिफेक्टिव आइटम !

मुझे
जरा बाद में पता चला
पर तुम्हे तो मालूम था ....
फिर
क्यों भेज दिया
मुझ जैसे डिफेक्टिव आइटम को
यहाँ ...? बोलो
क्वालिटी वालों के यहाँ भी  आर टी आई  लगाया
तो कहते हैं
प्रोडक्शन  में पता करो
यहाँ से ओ के  है रिपोर्ट
अब प्रोडक्शन में ....
अपने ब्रह्मा जी ...बुजुर्ग आदमी
वर्कलोड रोज का रोज बढ़ता जा रहा है
इन्फ्रास्टक्चर  वही पुराना
हो गयी चूक ....
पर अपना तो बैंड बज गया न !

फिर मैंने सोंचा
चलो रिजेक्ट का टैग तो लग ही गया है
शंकर जी को अप्रोच किया
भाई वापसी का जिम्मा तो उन्ही का है न
उफ्फ्फ
सालों इंतज़ार करो
कब जरा होश में हों तो अपनी बात कहूँ
कुछ पता ही नही चलता
एक दिन माँ ने
मेरी अर्जी  रख़ दी सामने
तो बोले
भगाओ.... इसे  
अभी यहाँ सारे अपने 'गणों' को खराब कर देगा
आदमी ठीक नही है
जानती हो तुम ...ये पागल भी प्रेम स्रेम वाला ......
और अभी इसका टाइम भी नही है
यहाँ आने का

अब तुम बताओ
माधव !
मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट का आइटम
कम्पनी वापस ले नही रही ...
अब आजकल इतना टफ कम्पटीशन
मार्केट में चल सकता नही
तो क्यों धक्के खिलवा रहे हो
इधर से उधर
इस दूकान से उस दूकान
..............
इसे मार्केट से उठा लो न
आखिर
मैंने सुना है
हर खोटा सिक्का
आपके पास आकर खरा हो जाता है
मुझे खरा नही होना
बस मुझे
चलन से बाहर कर दो
यही एक इल्तजा है
अब मत तड़पाओ माधव !!

-आनंद द्विवेदी २९/१२/२०११


रविवार, 25 दिसंबर 2011

"२०११" ...एक अन्तरंग बातचीत !




प्रिय २०११ !
जा रहे हो न
कभी नही आओगे अब
तुम्हारी तरह के ४३ और वर्ष
जा चुके हैं ऐसे ही
केवल समय के गतिमान होने का
बोध कराते हुए
मगर तुम !
तुमने जो दिया है
जो सौगातें
जो नेमतें
वो अद्वितीय हैं

तुम
बहुत हसीन थे
बहुत शक्तिशाली भी
मगर नियति को बदलने की क्षमता
नही थी तुम में भी

तुमने ही पहली बार बताया कि
खुशबू किसे कहते हैं
हवाएं कैसे गाती हैं
आसमान से गिरती बरसात की बूंदों में
पानी और शराब का अनुपात कितना होता है
तुमने ही बताया कि
जो आनंद पागल होने में है
वो होश में कहाँ ....
और ये भी कि
एक जोड़ी आँखों में
सारी दुनिया कि शराब से
ज्यादा नशा कैसे होता है
और फिर ये भी कि
एक जोड़ी आँखों में ही
एक सागर से ज्यादा
पानी
कैसे आ जाता है !

तुमने जाते जाते
अपना सबसे नायाब तोहफा दिया मुझे ...
फकीरी का
कुछ होने में वो सुख कहाँ
जो 'कुछ न' होने में है
मेरा यह अनुपम आनंद
केवल वही महसूस कर सकता है
जिसके पास........ कुछ न हो
पकड़ने में
वो आनंद कहाँ
जो छोड़ देने में है
पाने में वो मस्ती कहाँ
जो खो देने में है ...!

एक छोटी सी कसक
फिर भी है
तुम हर जाने वाले कि तरह
इतनी हड़बड़ी में क्यों हो
कुछ और ठहरते तो .....?
तुम्हें अच्छे से पता है कि
मुझको .....
इतनी जल्दी
किसी भी बात की
सालगिरह मनाना
जरा भी
अच्छा नही लगेगा !

खैर छोड़ो
मैं तुम्हें पूरे मन से विदाई देता हूँ
अब विदा
हमेशा के लिए !!!

-आनंद द्विवेदी  २५/१२/२०११