शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

मुझे रस्सी पे चलने का तजुर्बा तो नहीं, लेकिन



जरा फुर्सत से बैठा हूँ, नज़ारों पास मत आओ,
मैं अपने आप में खुश हूँ, बहारों पास मत आओ |

सितमगर ने जो करना था किया, मझधार में लाकर,
जरा  किस्मत भी अजमा लूं, किनारों पास मत आओ |

मुझे  रस्सी पे चलने का   तजुर्बा तो नहीं, लेकिन
मैं फिर भी पार कर लूँगा, सहारों पास मत आओ  |

मेरी खामोशियाँ बोलेंगी, और वो बात सुन लेगा,
जो कहना है मैं कह दूंगा, इशारों पास मत आओ |

कई सदियों तलक मैंने भी, काटे चाँद के चक्कर ,
बड़ी मुश्किल से ठहरा हूँ, सितारों पास मत आओ |

महज़ 'आनंद' की खातिर , गंवाओ मत सुकूँ अपना,
न चलना साथ हो मुमकिन, तो यारों पास मत आओ |


  -आनंद द्विवेदी ३०/०९/२०११


शनिवार, 24 सितंबर 2011

चिराग़ बनके, कोई राह दिखाता है मुझे




राह अनजान है,  तूफां भी डराता है मुझे,
मैं तो गिर जाऊं तेरा प्यार बचाता है मुझे |

घेर लेते हैं अँधेरे, निगाह को जब भी ,
चिराग़ बनके, कोई राह दिखाता है मुझे |

जब भी होता है गिला मुझको, मुकद्दर से मेरे,
दिल की दुनिया में कोई पास बुलाता है मुझे |

जिस तरफ देखूं, जहाँ जाऊं, तेरा ही चेहरा,
हाय रे 'इश्क', अजब रंग दिखाता है मुझे  |

जिक्र जब तेरा उठे , कैसे सम्भालूँ खुद को,
दोस्त कहते हैं कि, तू नाच नचाता है मुझे |

प्यार करता है मुझे बेपनाह वो जालिम,
दिन में दो चार दफे रोज़ रुलाता है मुझे  |

वो न मिलता तो भला कौन समझता मुझको,
प्यार उसका ही तो 'आनंद'  बनाता है मुझे  ||

  -आनंद द्विवेदी २४-०९-२०११  

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

समंदर उबल ना जाये कहीं ...







फिर एक शाम उदासी में ढल न जाये कहीं |
आ भी जाओ ये हसीं वक्त टल न जाए कहीं

रोक रक्खा है भड़कने से दिल के शोलों को
मेरे दिल में जो बसा है वो, जल न जाये कहीं |

नज़र में ख्वाब पले हैं, औ नींद गायब है ,
आँखों-आँखों तमाम शब, निकल न जाये कहीं |

उन्हें ये जिद कि वो मौजों के साथ खेलेंगे,
मुझे ये डर कि समंदर, उबल न जाये कहीं |

आपकी बज़्म में आते हुए डर जाता हूँ,
हमारे प्यार का किस्सा उछल न जाये कहीं |

जानेजां शोखियाँ नज़रों से लुटाओ ऐसी,
रिंद का रिंद रहे वो संभल न जाये कहीं |

रुखसती के वो सभी पल नज़र में कौंध गये,
अबके बिछुड़े तो मेरा दम निकल न जाए कहीं |

रूह से मिल गया ' आनंद ' जब से ऐ यारों
लोग कहते हैं ये इन्सां बदल न जाये कहीं |

- आनंद द्विवेदी १३-०८-२०११

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

रस्म-ए-उल्फत निभा के देख लिया










रस्म-ए-उल्फत निभा के देख लिया
हमने भी   दिल लगा के देख लिया

सुनते आये थे आग का दरिया
खुद जले, दिल जला के देख लिया

उनकी दुनिया में उनकी महफ़िल में
एक दिन,   हमने जाके देख लिया

दर्द भी,  कम हसीँ  नही  होते
बे-सबब मुस्करा के देख लिया

उनका हर जुल्म, प्यार होता है
चोट पर चोट खा के देख लिया

इश्क ही अब है बंदगी अपनी
उनको यजदां बना के देख लिया

उनको 'आनंद' ही नही आया
हमने खुद को मिटा के देख लिया

यजदां = खुदा

आनंद द्विवेदी ७/०८/२०११

बुधवार, 10 अगस्त 2011

उनसे भी मेरा प्यार छुपाया ना जायेगा



मुझसे तो खैर होश में आया ना जायेगा
उनसे भी मेरा प्यार छुपाया ना जायेगा

चेहरा मेरा किताब है पढ़ लेना इसे तुम
मुझसे यूँ हाले दिल तो बताया न जाएगा

तुम आ गये जो याद तो जलते ही रहेंगे
मुझसे कोई चिराग बुझाया ना जाएगा

इस बार गर मिलो तो जरा एहतियात से
अब जख्म नया मुझसे भी खाया न जाएगा

सपना नहीं किसी का इक बूँद अश्क हूँ मैं
नज़रों से गिर गया तो उठाया न जाएगा

खामोश हसरतें हैं, कि तू कह दे इक दफा
गैरों को कभी बीच में लाया न जाएगा

जालिम सितम किये जा, पर ये भी ख्याल रख़
'आनंद' मिट गया तो बनाया न जाएगा

  -आनंद द्विवेदी ४/०८/२०११