शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

ठहरो चाँद ....!




बरसों बाद 
मेरी खिड़की  पर 
आज 
चाँद आकर ठहर गया है
हू-ब-हू  वही चाँद 
वही नाक नक्श, वही चांदनी 
बादलों की ओट में 
वही लुका छिपी  
वही शरारतें ..

इस बार नहीं जाने दूंगा ..
नहीं करूंगा 
रत्ती भर संकोच
बाँहों में भर लूँगा
हर कतरा
चांदनी....तुम्हारी!    

इतने दिन 
कहाँ थे तुम ?
तुम्हें 
मेरे गीत पसंद थे न  
देखो 
मैंने कितने गीत लिखे है
इनका हर लफ्ज़  
कितना तुम्हारा है 
आज सुनाऊंगा तुम्हें 
कम से कम 
एक गीत  मैं !

आज पूनम है 
खूब सारा वक़्त है न तुम्हारे पास 
अब से पहले 
न कभी 
ऐसी पूनम आई 
न कभी 
ऐसा वक़्त 
आज रुकोगे न तुम?
जल्दी मत करना 
आज ही 
जी लेनी है मुझे... 
अपनी सारी उम्र 
मुझे कल पर 
जरा भी ऐतबार नहीं !!

-आनंद द्विवेदी 
१५-०३-२०११

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

उफ्फ् फिर सपने ...



सुबह से.. 
एक सादा पन्ना 
नाच रहा है 
आँखों के सामने
रात में
इसी पर मैंने 
रंग बिरंगी स्याही से
सब कुछ तो लिख दिया था ...

मैंने लिखा था 
तुम्हारी मुस्कान 
तुम्हारी शराफत 
तुम्हारा प्यार 
तुम्हारी लापरवाही 
तुम्हारी इबादत 
तुमको 

मैंने लिखा था 
अपनी आरजू 
अपनी गिड़गिड़ाहटें  
अपनी बेबसी ... 
अपना जुजून 
वो भी सब 
जो आज तक मैंने
तुमको नहीं बताया था 
खुद से भी ..
चुराए हुए था जो राज ...

पर सुबह...
देखा तो... 
पन्ना तो सादा ही था ..

निगोड़े सपने 
रात में भी  तंग करते हैं 
और दिन में भी !

-आनंद द्विवेदी  
अप्रैल १४, २०११ 

रविवार, 10 अप्रैल 2011

मुझको अक्सर भड़काते है ये सपने


क्या क्या सपने दिखलाते हैं ये सपने,
एकदम पीछे पड़ जाते हैं,  ये सपने   !

मैंने हर खिड़की दरवाजा बंद किया था,
जाने किस रस्ते आते हैं,  ये सपने    !

इनको मालूम है मैं इनसे डरता हूँ,
मुझे डराने आ जाते हैं,   ये सपने !

इनको अक्सर मैं समझाकर चुप करता हूँ,
मुझको अक्सर भड़काते  हैं,   ये सपने  !

जब-जब इनके डर से नींद नहीं आती है,
तब-तब दिन में आ जाते हैं,  ये सपने !

वैसे तो ये अक्सर,  झूठे  ही  होते  हैं,
कभी-कभी सच दिखलाते हैं, ये सपने !

जब-जब  मेरी हार, मुझे  तडपाती   है ,
तब-तब आकर  समझाते  हैं, ये सपने !

ये 'आनंद' गया तो , लौटे   न  लौटे ,
इसी बात से  घबराते  हैं, ये सपने ! 

--आनंद द्विवेदी ०९-०४-२०११ 

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

क़तरा क़तरा एक समंदर सूख गया





लम्हा लम्हा करके लम्हा छूट  गया
क़तरा  क़तरा एक समंदर सूख गया  !

और हादसों के डर से, वो तनहा था  ,
तनहा तनहा रहकर भी तो टूट गया !

मैं कहता था न, ज्यादा सपने मत बुन, 
वही हुआ , सपनों का दर्पण टूट गया  !

फिर कोई मासूम सवाल न कर बैठे ,
बस इस डर से ही, मैं उससे रूठ गया  !

मेरी फाकाकशी  सभी को मालूम थी ,
फिर भी कोई आया  मुझको लूट गया

उसकी बातों से तो ऐसा लगता  था ,  
जैसे कोई दिल का छाला फूट गया !

जो 'आनंद' नज़र आता है, झूठा है ,
उसका सच तो कब का पीछे छूट गया !

  --आनंद द्विवेदी ०९/०४/२०११ 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

नया ब्लेड




कल देखा है तुम्हें बहुत गौर से
मैने अपनी कविता में
तुम खड़े थे
तुम हंस रहे थे 
तुम मुस्करा रहे थे
तुम कुछ कह रहे थे शायद
मैं केवल सुन रहा था और सोंचे जा रहा था कि
जज्बात तो हैं ....संभालना इन्हें.....खेलना मत
बढ़ते जाना
पैरों के नीचे मत देखना कभी भी
वहां रूकावट होती है ....पैरों के पास
किसी के कुचले जाने का डर भी
दर्द की चादर ओढ़े रहना
दर्द को जीना नही
चादर उतारने में ज्यादा सहूलियत होती है.
जीवन बदलने की बनिस्बत!

फिर बाद में जब  तुमने ठुकराया न 
मुझे... 
तभी अचानक मुझे भी 
समझ में आगया था 
कि विद्वान लोग 'अटैचमेंट ' को 
इतना बुरा क्यूँ कहते हैं
पहली बार  दर्द से जीत गया मैं 
थैंक्स अ लाट आपको
मुझे जरा  भी दर्द नहीं  हुआ 
जैसे एकदम नया ब्लेड निगल लिया हो 
बड़ी सफाई  से अन्दर तक  काटा है
बिना कोई दर्द दिए 
ये कला भी सब के पास कहाँ होती है 
पर एक बात है
मैं भी बहुत ढीठ आदमी हूँ.
देखना फिर पडूंगा अटैचमेंट के चक्कर में
मैंने कब कहा कि...
मैंने  प्यार करना छोड़ दिया है
मैंने कोई चादर थोड़े ओढ़ी थी
जो उतार दूँ
तुम एक  नया ब्लेड लेकर रख लो
मैं जल्दी ही फिर आऊंगा !

      --आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११