शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

हरसिंगार की महक !......



यहीं
इसी
हर सिंगार के नीचे
जब धवल पुष्प 
एक एक कर झर रहे थे
हमारे तन पर .
हमारे चारों तरफ ,
तुम
मेरे सीने पर
अपनी उँगलियों से
लिख रही थी
मेरा ही नाम
यूँ ही !

प्रकृति
एकदम मौन थी
जैसे अभी शब्द की
उत्पत्ति ही नही हुई हो
समय भी
तनिक सा रुक गया था
मानो वो भी
साक्षी होना चाह रहा था
इस परमात्मिक प्रेम का !

चाँद
टकटकी लगाए
देख रहा था
हमारे
मोद को
मिलन को
प्रेम को ,
हमारी डूबन को
हमारी समाधि को !

सहसा
चाँद ने
शुभ्र चांदनी की
एक चादर
डाल दिया हमारे ऊपर
और
मुस्कराकर
अपनी मंजिल को चल पड़ा !

धीरे धीरे ...
हम ढक गये
हरसिंगार  के श्वेत पुष्पों से 
देखो न
हमारी सांसें
अभी भी
वैसी ही
महक रही हैं  !!


  -आनंद द्विवेदी २८/१०/२०११ 

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

प्रेम ..!



क्या कहूँ या लिखूं ..
अब तक
जो जाना था
कोई रूचि नहीं
अब उसमे ...
जो बरस रहा है
'इस पल' में
पहले उसे जी लूं
उसे पी लूं
लिखता रहूँगा ग्रन्थ
बाद में
हाँ
अगर एक शब्द में
लिखी कविता
समझ सकते हो
तो लो
लिख देता हूँ
प्रेम !!

आनंद द्विवेदी ....२४/१०/२०११

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

फिर वही दिन आ गये, फिर गुनगुनाना आ गया




फिर वही दिन आ गये, फिर गुनगुनाना आ गया,
जाते जाते लौटकर , मौसम सुहाना आ गया   |

फिर किसी रुखसार की सुर्खी हवा में घुल गयी,
फिर मुझे तनहाइयों में मुस्कराना आ गया   |

सबकी नजरों से छुपाकर, उसने देखा फिर मुझे,
फिर मेरे मदहोश होने का ज़माना आ गया    |

शोखियों की बात हो या सादगी की बात हो,
हर अदा से अब उसे बिजली गिराना आ गया |

अब नही पढ़ पाइयेगा, उसकी रंगत देखकर,
उस हसीं चेहरे को भी , बातें छुपाना आगया |

मेरे दिलवर से मुझे भी , कुछ हुनर ऐसा मिला,
आग के दरिया से मुझको, पार जाना आगया |

जिंदगी 'आनंद' की, अब भी वही है दोस्तों,
हाँ मगर उसको, उसे जन्नत बनाना आ गया |

- आनंद द्विवेदी   ०६/१०/२०११

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

इतना कुछ दे डाला है.....






राज छुपाये दुनिया भर के, खाक जहाँ की छान रहे
कितने ज्ञानी मिले राह में, हम फिर भी नादान रहे

सारे जीवन भर के शिकवे, अपने साथ ले गये वो
मेरे घर भी ख्वाब सुहाने, दो दिन के मेहमान रहे

आखिर उनका भी तो दिल है, दिल के कुछ रिश्ते होंगे
क्यों ये बात न समझी हमने, बे मतलब हलकान रहे

अपने से ही सारी दुनिया, बनती और बिगड़ती है
जिस ढंग की मेरी श्रद्धा थी, वैसे ही भगवान रहे

तू है प्राण और मैं काया, तू लौ है मैं बाती हूँ
ये रिश्ते बेमेल नही थे, भले न एक समान रहे

जाते जाते साथी तूने, इतना कुछ दे डाला है
साथ न रहकर भी सदियों तक, तू मेरी पहचान रहे

दुआ करो 'आनन्द' सीख ले, तौर तरीके जीने के
फिर चाहे तेरी महफ़िल हो, या दुनिया वीरान रहे


   -आनन्द द्विवेदी, ०२/१०/२०११

शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

मुझे रस्सी पे चलने का तजुर्बा तो नहीं, लेकिन



जरा फुर्सत से बैठा हूँ, नज़ारों पास मत आओ,
मैं अपने आप में खुश हूँ, बहारों पास मत आओ |

सितमगर ने जो करना था किया, मझधार में लाकर,
जरा  किस्मत भी अजमा लूं, किनारों पास मत आओ |

मुझे  रस्सी पे चलने का   तजुर्बा तो नहीं, लेकिन
मैं फिर भी पार कर लूँगा, सहारों पास मत आओ  |

मेरी खामोशियाँ बोलेंगी, और वो बात सुन लेगा,
जो कहना है मैं कह दूंगा, इशारों पास मत आओ |

कई सदियों तलक मैंने भी, काटे चाँद के चक्कर ,
बड़ी मुश्किल से ठहरा हूँ, सितारों पास मत आओ |

महज़ 'आनंद' की खातिर , गंवाओ मत सुकूँ अपना,
न चलना साथ हो मुमकिन, तो यारों पास मत आओ |


  -आनंद द्विवेदी ३०/०९/२०११