गुरुवार, 2 जून 2011

पता ही नहीं चला.... !


कब उनसे हुई बात, पता ही नहीं चला 
कब बदली क़ायनात, पता ही नहीं चला !

यूँ मयकशी से मेरा, कोई वास्ता न था 
कब हो गयी शुरुआत, पता ही नहीं चला !

उस एक मुलाकात ने क्या क्या बदल दिया 
'वो' बन गये हयात , पता ही नहीं चला ! 

दो चार घड़ी बाहें, दो चार घड़ी सपने 
कब  बीत गयी रात, पता ही नहीं चला !

मीठी सी चुभन वाली, हल्की सी कसक वाली 
कब हो गयी बरसात , पता ही नहीं चला !

हम कब से आशिकी को, बस दर्द समझते थे 
कब बदले ख़यालात , पता ही नहीं चला !

'आनंद' को मिलना था, इक रोज़ बहारों से 
कब बन गए हालात,  पता ही नहीं चला  !

आनंद द्विवेदी ०१/०६/२०११


बुधवार, 1 जून 2011

दिल चीज़ क्या है .....


मेरा दिल न...
मुझे
अपनी जान से
ज्यादा प्यारा है
पूछो क्यों ?


इसे
सब पता है
मेरे बारे में
मेरा
हर राज
जानता है यह
इसे ये भी पता है
कि 
मैं खून भेजने भर से
जिन्दा नहीं रह पाउँगा
तभी तो
ये पम्प करता है
सपने ,
एहसास
सुरूर,
और कई बार तो
आग भी
मेरे अन्दर !
मेरी नसों के
अंतिम सिरे तक
मेरी हर रग में
मेरा प्यारा दिल..!
खून 
पम्प करने का काम
तो
मुर्दा दिल
भी कर ही लेते  हैं
 या 
दिल की  जगह 
कोई मशीन भी 

मगर मेरा दिल
मुर्दा नहीं ..
महसूस करता  है 
मेरी मदहोशी को 
जानता है 
किसको देखकर 
 इसे उछल जाना है बल्लियों 
और कब
ठहर जाना है
बिलकुल ही 
किसी एक मुस्कान पर  
पल भर के लिए ....
इसे तो ये भी पता है
कि
किसके न मिलने पर
इसे धड़कने से
मना कर देना है..
कब महफ़िल सजानी है
कब गुनगुनाना  है
कब सपने देखने हैं
और
कब
टूट जाना है
चुपचाप
बिना
कोई आवाज़ किये....!

आनंद द्विवेदी २५-०५-२०११  


सोमवार, 30 मई 2011

वापसी -प्रतीक्षा के बाद....



वेटिंग रूम से ...कविता .... की अगली और अंतिम कड़ी 

याद आ रहा है मुझे
गुज़रते हुए इस
अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा से
कहा था कभी
तुमने
कि बदलती है 
अनिश्चित प्रतीक्षा
जब 
अंतहीन प्रतीक्षा में
तब 
ऊब कर 
लौटता है 
मन
वापस  
अपने घर की ओर ...

गूँज गए हैं 
तुम्हारे शब्द 
अंतर्मन में मेरे-
"मुड़ो अपनी ओर.. 
डूबो  खुद में
मैं वहीँ हूँ
तुम्हारे भीतर
मत ढूंढो मुझे बाहर
बस खुद से मिलो ..
मिलो तो एक बार  !!!"

हाँ !!
यही कहा था तुमने...
और फिर मैंने भी
स्थगित कर दी
आगे की यात्रा,
अनिश्चित का इंतज़ार,
लौट पड़ा हूँ घर को 
तुम्हारे शब्दों में जादू है
या मेरे विश्वास में  ?
 कह नहीं सकता 
किन्तु ...
डूबने लगा हूँ मैं
खुद में..
करने लगा हूँ 
तैयारी
एक महायात्रा की...
आ रहा हूँ
तुम्हारे पास ,
इसी विश्वास के साथ 
कि
दिशा सही है अब
पाने को 
मंज़िल अपनी ....

आनंद द्विवेदी 
२७/०५/२०११

शनिवार, 28 मई 2011

वेटिंग रूम से....




प्रतीक्षालय में होना
सुखद है,
बनिस्बत 
होने के
किसी प्रतीक्षा में ..

हजारों चेहरे
और 
उनपर से गुजरते हुए 
लाखों भाव ..
किसी की आँख में 
संतोष
लगता है 
किसी अपने से 
मिलकर आ  रहा हो
वहीं  
किसी की आँखों  में 
व्यग्रता
जैसे 
उसे देर हो रही हो 
कहीं जाने की ,
एक सुरूर एक दर्प
कि कर रहा  है 
कोई इंतजार  ...

सामने 
एक जोड़ा बैठा है ...
दीन दुनिया से 
बेखबर
कहीं जाने की 
कोई जल्दी नहीं
कोई व्यग्रता नहीं
बस दो जोड़ी आँखें
उनमे चमकते जुगुनू
कुलबुलाती शरारतें
छलकता प्यार
न पैरों में 
अतीत के बंधन
न सर पर 
भविष्य का भार
कितना सुखद है
जो मेरे पास है 
उसे इस क्षण में 
पूरी तन्मयता से जीना ...!

वो कोने की सीट पर
एक लड़की बैठी है
अकेली लड़की
जो साफ-साफ  तो नहीं 
दिखाई दे रही
मगर
उसकी आँखों का 
सूनापन
चमक रहा है 
दूर से ही ..
सांसें भी 
साफ़ सुनाई दे रही हैं.
इतने शोर के बावजूद
सर्द आहें छोडती हुई 
सांसें
शायद
खोने पाने के इस खेल में
खो दिया है
उसने कुछ  !

और मेरे ठीक सामने
ये अकेले बुजुर्गवार...
जाने क्या ढूंढ रहे हैं !
हर आते-जाते 
चेहरे में
शायद वही चेहरा
जिसे ये 
जिगर का टुकड़ा 
कहते थे
जो छोड़ गया है ....
इनको इस अंतहीन
प्रतीक्षालय की 
सीढ़ियों तक ..
सोंचता हूँ
कितना सब्र होता है 
इन बुजुर्गों में
कभी उम्मीद ही नहीं छोड़ते...!

अचानक
मैं ढूँढने लगता हूँ  
तुमको ......!!
मगर
तुम नहीं हो 
इस प्रतीक्षालय में
तुम्हें नहीं है
किसी की प्रतीक्षा
शायद तुमने पा लिया है
अपना गंतव्य
मुक्त हो गए तुम 
इन छोटी मोटी बातों से..!

फिर भी
सोंचता हूँ
शायद 
दिख जाये
तुम जैसा ही कोई
इसी कोशिश में 
हर चेहरा पढ़ डाला मैंने
जीवंत  चेहरे
खिलखिलाते चेहरे
मुर्दा चेहरे
व्यापारी चेहरे
खुर्राट चेहरे
मासूम चेहरे
थके चेहरे
उफ़..!!!!
कुछ न कुछ कमी
क्यों निकल आती है सबमे
क्यों नहीं होता कोई
तुम जैसा ....!
परिपूर्ण ...!!

अचानक 
एक उद्घोषणा
गाड़ी संख्या १२७८६
नयी दिल्ली से पुरी जाने वाली
नीलांचल एक्सप्रेस गाड़ी
अनिश्चितकालीन विलम्ब से है .....

हथौड़े की तरह 
लगता है
यह शब्द
अनिश्चितकालीन  ...
तुम्हें शायद पता हो 
या  न हो
कि
प्रतीक्षा जब
अनिश्चित कालीन 
हो जाती है
तब
कितना दर्द देती है .....!!

 आनंद द्विवेदी २७/०५/२०११
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से

बुधवार, 25 मई 2011

छू लो , पगलाई उमंग को !



आने दो , हर सहज रंग को !
छू लो ,  पगलाई उमंग को  !

शाम नशीली रात चम्पई 
दिवस सुहाने सुबह सुरमई 
पिया मिलन की आस जगी है
फिर अधरों पर प्यास जगी है
मूक शब्द क्या कह पाएंगे 
महा मिलन के मुखर ढंग को 
छू लो ,  पगलाई उमंग को  !

तन में वृन्दावन आने दो 
मन को मधुवन हो जाने दो 
फिर से मनिहारी मोहन को 
बरसाने तक आ जाने दो 
तन वीणा के तार बन गया 
बजने दो अविरल मृदंग  को 
छू लो, पगलाई उमंग को  !

मैं पूजा की थाल सजाये 
कब से बैठा आस लगाये 
सदियों बीत गए हों जैसे 
कान्हा को नवनीत चुराए 
सुन लो फिर वंसी का जादू
खिल जाने दो अंग-अंग को 
आने दो हर सहज रंग को !
छू लो  पगलाई उमंग को  !!

  आनंद द्विवेदी १५-०५-२०११