रविवार, 3 सितंबर 2017

मेरे अपने

वाह भाई वाह,
ऐसे कैसे कह दूँ कि कोई नहीं है मेरा
भगवान ने दो हाथ पैर दिए हैं
वो भी सलामत,
एक पूरी दुनिया है
(वो दीगर बात है कि बिना तुम्हारे ये दुनिया बेकार लगे...पर है तो)
रिश्ते नाते हैं
(वो दीगर बात है कि बिना तुम्हारे सारे नाते केवल माँग और पूर्ति के नियम की श्रंखला भर हैं... पर हैं तो)
ख़्वाब हैं
(वो बात दीगर है कि तुम्हें पास से छूकर देखने का पहला ख़्वाब आज तक अधूरा है...पर है तो)
आँखें हैं
(वो बात दीगर है कि आँखें खुशियों के नन्हे जुगुनू समेटने की जगह खारे पानी का बेमतलब झरना भर हैं... पर हैं तो)
आँसुओं से अच्छा याद आया
अपने तो सिर्फ़ आँसू हैं,
उतना ही तुम्हें देखकर छलकते हैं 
जितना न देखकर
राम जाने कैसे रह लेते हैं
ग़म और ख़ुशी दोनों के एक से वफ़ादार
काश मैं इनसे सीख पाता कोई सबक ...

काश आँसुओं से भरी अपनी आँखें
मैं
चूम पाता एक बार !

© आनंद

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

अवसाद -2

मैं अपने अँधेरों को घसीटकर प्रकाश में नहीं ले जाना चाहता,
न ही चाहता हूँ अपने तिमिर पर किसी भी प्रकार के उजाले का अवांछित हमला
मैंने नीम अँधेरे में फैलाया है अपना हाथ
किसी साथ के लिये
प्रकाश के लिए नहीं...

मेरे भीरु सपने
घबराते हैं चकाचौंध से
इतना,  कि
जितना घबराता होगा गर्भस्थ भ्रूण
अजन्मी मृत्यु से,
मेरे लिए सुरक्षित आश्रय था तुम्हारा प्रेम
जहाँ मैं साँझ ढले कभी भी रुक सकता था
किंतु एक दिन जब मैं बहुत थका था और हारा भी
उस दिन शाम ढली ही नहीं
तुम ने चुन लिया था प्रकाश को
निरापद,
आश्रित प्रेम किसे भाता भला

प्रकाश एक कर्म है
सूरज का उदय- अस्त होना
चंद्रमा का भी,
दीप जलाना अथवा कोई और जतन करना उजाले की
सबका सब है एक यत्न एक दौड़,
और अँधेरा... वो तो है... बस है
सायास प्रकाश है
अनायास अँधेरा है,
तुम्हारे प्रकाश वरण के बाद...
एक दिन मैंने भी मना कर दिया और दौड़ने से
अब मैं
अँधेरे के खिलाफ़ 
दुनिया के किसी भी षड़यंत्र का हिस्सा नहीं हूँ
और मेरी दुनिया में नही है
प्रकाश का कोई भी हिस्सा ।

© आनंद

अवसाद

अवसाद
――――
मुस्कराती तस्वीरों के पीछे छिपी
गहन पीड़ा सा मैं
बार बार खटखटाता हूँ
किसी अदृश्य मृत्यु का द्वार
निष्फल प्रयत्नों का लेखा जोखा इकट्ठा कर रहा है जीवन,
दुनिया तंज़ करती है ...'बस्स' ?
मेरे मुँह से निकलती है बस एक 'आआह्'...

अब दुनिया शिकारी है 
जीवन एक जंगल
जहाँ केवल ताकतवर को ही होती है
जीने की अनुमति,
मृत्यु अब मीडिया की तरह है
शिकारी शिकार करते हुए करेगा
मनोरंजन के अधिकार का उपयोग !
जंगल में मृत्यु केवल एक 'क्षण' है
घटना नहीं,
जंगल में नहीं मिलते किसी क्षण के पाँवों के निशान।

ऐसे में
केवल 'तुम' मुझे बचा सकती हो
पर तुम
कहीं नही हो !

© आनंद

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

देखेंगे

कुछ दिन बिना सहारे चलकर देखेंगे
खुद को थोड़ा और बदल कर देखेंगे

तुम को तो आता है मुझे सिखा दो ना
हम भी दुनिया भेष बदल कर देखेंगे

सपनों के हत्यारे निर्मम जीवन को
अपने सारे ख़्वाब कुचल कर देखेंगे

सीखेंगे ये हुनर तुम्ही से सीखेंगे
आग लगाकर साफ निकल कर देखेंगे

दर्द बहुत है लेकिन यही तमाशा हम
पंजों के बल उछल उछल कर देखेंगे

हमने भी 'आनंद' गँवाया, तुमने भी
अब क्या होगा खाक़ संभल कर देखेंगे

साँसों के रुकने तक चलना पड़ता है
हम भी सारे छल-बल करके देखेंगे

© आनंद




रविवार, 25 जून 2017

थोड़ी दूर अकेले चलने की सोचें

थोड़ी दूर अकेले चलने की सोचें
आख़िर क्यों साँचे में ढलने की सोचें

सब अपनी अपनी राहों से जाएँगे
हम क्यों तेरी राह बदलने की सोचें

जितने गहरे जाना था हम डूब चुके
अब कोई तरकीब निकलने की सोचें

तेरी संगदिली भी एक मसळआ है
लेकिन हम क्यों संग पिघलने की सोचें

क्या जाने कब ज़ख़्मी हो ले मूरख दिल
इन ज़ख़्मों के साथ संभलने की सोचें

आशिक़ तो बेचारा खुद ही मिट लेगा
हम क्यों कोई रस्म बदलने की सोचें

कहते हैं 'आनंद' मिलेगा जलने में
ऐसा हो तो हम भी जलने की सोचें

– आनंद