बुधवार, 20 नवंबर 2013

ऐसे ही ठीक हूँ

तुम्हें
न प्रेम चाहिए
न मैं
न साथ
न ही सुख
इतनी कम हैं तुम्हारी चाहतें
कि कभी कभी
तुमसे ईर्ष्या होती है

__________


मन करता है
तुम्हें जोर से आवाज़ लगाऊं
खिलखिलाकर हसूँ
दोनों हाथ फैलाकर
मैदान में सरपट दौडूँ,
पहरों नीले आसमान को देखूँ
उड़ते हुए परिंदों को इशारे से बुलाऊं
बिना सुर और लय की परवाह किये हुए
गाऊं मनपसंद गाना
अरे अंत नहीं है
अगर एक बार मस्ती पे आ जाऊं तो ...

मगर बिस्मिल्लाह ....
तुमसे ही करना चाहता हूँ
और तुम्म तो फिर
तुम ही हो !

मेरा कुछ नहीं हो सकता
मैं ऐसे ही ठीक हूँ  !

शनिवार, 16 नवंबर 2013

ओ प्रवासी परिंदे ...


प्रवासी परिंदे की तरह
तुम
जब उड़ कर आये
मेरे शहर की गलियों में,
मैंने तैयार रखीं थीं
प्रतीक्षारत आँखें
थोड़ा सा इंतज़ार
बहुत सारी उम्मीदें …
और हाँ कुछ बेवकूफ़ियाँ भी,

इस पूरे एक पखवाड़े
मैंने पहने एकदम चमचमाते जूते
रोज कलप और इस्तरी किये कपड़े
ध्यान रखा कि पूरी गोलाई में कटे रहें नाखून
और आईने को एक भी बाल
सफ़ेद नज़र न आये

आज जब तुम लौट रहे हो 
अपने आशियाने की तरफ
मैंने अपने अंदर के शरारती बच्चे को
पीट दिया है बेवजह,
अचानक हो उठा हूँ शांति प्रिय
इतना बूढ़ा  … और थका
कि
अब नहीं दे सकता खुद को
कुछ भी !

- आनंद





गुरुवार, 14 नवंबर 2013

बची हुई ध्वनियाँ

वो पंक्षी
आज नहीं रोया
छटपटाया भी नहीं
भूल से भी नहीं किया किसी से
दूसरे उड़ते हुए पंक्षियों के बारे में बात
बल्कि बैठा बड़े ही इत्मीनान से
अपने ही हाथों से
नोचता रहा  .... एक एक करके
अपने पंख,
अपने कभी न उड़ पाने का ऐसा विश्वास....
आखिर दुनिया
विश्वास  से ही तो चलती है !

तुम्हारा न होना
एकदम ऐसा ही है
जैसे
दिन का न होना
पानी का न होना
या फिर न होना शब्द का
इस बार बची हुई ध्वनियाँ भी
साथ ले जाना तुम !

चीर फाड़ देने
नसें काट देने / बदल देने से
क्या होगा ?
विज्ञान को कुछ नहीं पता
दिल के बारे में
और न ही उसको लगने वाले रोग के बारे में !

- आनंद

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

अन्दर दीपक बुझा हुआ है

अंदर दीपक बुझा हुआ है पर बाहर दीवाली है
ऊपर से सब हरा भरा है अंदर खाली खाली है

मौसम का रुख देख देख कर मुझको ऐसा लगता है
जिसमें चोट सताती है,  वो पुरवा चलने वाली है

मेरा मुझमे नहीं रहा कुछ, अच्छा बुरा उसी का है
हम जिस सावन के अंधे हैं ये उसकी हरियाली है

मुझको तो कुछ पत्थर भी अब इंसानों से लगते हैं
इंसानों में भी पत्थर की नस्लें आने वाली हैं

कितने दिन 'आनंद' रहेगा तू बेगानी बस्ती में
अपनेपन की परछाई भी आँख चुराने वाली है

-आनंद 

रविवार, 10 नवंबर 2013

बे-उमंग !

सुबह गुनगुने सूरज के बगल में
एक सिंहासन खाली देख
मन उदास हो गया
आज मेरे ख्वाबों ने
उसे
वहाँ
मेरे लिए ही तो रखा था

मोबाइल में सन्देश की धुन बजते ही
लपक कर उठाया
और पाया कि 
अल-सुबह मोबाइल कंपनी ने
बिल भेजे जाने की अग्रिम सूचना भेजी है
नहीं भेजा तुमने
कुछ भी
कभी भी
मेरे लिए

और इस तरह एक बार फिर
मैं धरती पर ही हूँ
नहीं निकल सका उस यात्रा पर
जिसका टिकट हमेशा तुम्हारे पास था,
राम जाने
चलने से पहले
ऐसा क्यों किया तुमने
पर अब लगता है कि
ठीक ही किया

तुम पर अटूट विश्वास …  मेरी शक्ति
धीरे धीरे
बदल गयी.....  मेरी दुर्बलता में,
तुम देखते रहे
हमेशा निस्पृह,
निस्संग
बेउमंग

तुम्हारे लिए मेरी ये अंतिम कविता है
एकदम वैसी ही बेउमंग
जिसे मैं चाहूँगा
तुम कभी न पढ़ो !

- आनंद