मंगलवार, 12 नवंबर 2013

अन्दर दीपक बुझा हुआ है

अंदर दीपक बुझा हुआ है पर बाहर दीवाली है
ऊपर से सब हरा भरा है अंदर खाली खाली है

मौसम का रुख देख देख कर मुझको ऐसा लगता है
जिसमें चोट सताती है,  वो पुरवा चलने वाली है

मेरा मुझमे नहीं रहा कुछ, अच्छा बुरा उसी का है
हम जिस सावन के अंधे हैं ये उसकी हरियाली है

मुझको तो कुछ पत्थर भी अब इंसानों से लगते हैं
इंसानों में भी पत्थर की नस्लें आने वाली हैं

कितने दिन 'आनंद' रहेगा तू बेगानी बस्ती में
अपनेपन की परछाई भी आँख चुराने वाली है

-आनंद 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर एक सजाई हुई कबिता-------।

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  2. बहुत सुन्दर ग़ज़ल......
    नाज़ुक से एहसास पिरोये हैं!!

    अनु

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-11-2013 की चर्चा में दिया गया है
    कृपया चर्चा मंच पर पधार कर अपनी राय दें
    धन्यवाद

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  4. मन की उदासी की खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  5. सुन्दर है गज़ल सार्थक अशआर है सबके सब। बधाई।

    मेरा मुझमें नहीं रहा कुछ ,अच्छा बुरा उसी का है

    हम जिस सावन के अन्धे हैं,ये उसकी हरियाली है।

    (मुझमें )सुन्दर है गज़ल सार्थक अशआर है सबके सब। बधाई।

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