अंदर दीपक बुझा हुआ है पर बाहर दीवाली है
ऊपर से सब हरा भरा है अंदर खाली खाली है
मौसम का रुख देख देख कर मुझको ऐसा लगता है
जिसमें चोट सताती है, वो पुरवा चलने वाली है
मेरा मुझमे नहीं रहा कुछ, अच्छा बुरा उसी का है
हम जिस सावन के अंधे हैं ये उसकी हरियाली है
मुझको तो कुछ पत्थर भी अब इंसानों से लगते हैं
इंसानों में भी पत्थर की नस्लें आने वाली हैं
कितने दिन 'आनंद' रहेगा तू बेगानी बस्ती में
अपनेपन की परछाई भी आँख चुराने वाली है
-आनंद
ऊपर से सब हरा भरा है अंदर खाली खाली है
मौसम का रुख देख देख कर मुझको ऐसा लगता है
जिसमें चोट सताती है, वो पुरवा चलने वाली है
मेरा मुझमे नहीं रहा कुछ, अच्छा बुरा उसी का है
हम जिस सावन के अंधे हैं ये उसकी हरियाली है
मुझको तो कुछ पत्थर भी अब इंसानों से लगते हैं
इंसानों में भी पत्थर की नस्लें आने वाली हैं
कितने दिन 'आनंद' रहेगा तू बेगानी बस्ती में
अपनेपन की परछाई भी आँख चुराने वाली है
-आनंद
बहुत सुंदर एक सजाई हुई कबिता-------।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल......
जवाब देंहटाएंनाज़ुक से एहसास पिरोये हैं!!
अनु
यकीनन...बहुत खूब सर ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-11-2013 की चर्चा में दिया गया है
जवाब देंहटाएंकृपया चर्चा मंच पर पधार कर अपनी राय दें
धन्यवाद
मन की उदासी की खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुन्दर है गज़ल सार्थक अशआर है सबके सब। बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरा मुझमें नहीं रहा कुछ ,अच्छा बुरा उसी का है
हम जिस सावन के अन्धे हैं,ये उसकी हरियाली है।
(मुझमें )सुन्दर है गज़ल सार्थक अशआर है सबके सब। बधाई।