शनिवार, 26 जनवरी 2013

इमरोज़ ; एक नज़्म ...कि जैसे मंदिर में लौ दिए की !

वक़्त मुहब्बत को
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......
(इमरोज़ की पंजाबी नज़्म ; अनुवाद: हरकीरत हीर  )

आधी रोटी पूरा चाँद 

वह पूरे चाँद की एक रात थी । बात शायद १९५९ की है, मैं दिल्ली रेडियो में काम करती थी, और वापसी पर मुझे दफ़्तर की गाड़ी मिलती थी । एक दिन दफ़्तर की गाड़ी मिलने में बहुत देर हो गई उस दिन इमरोज़ मुझसे मिलने के लिए वहां आया हुआ था, और जब इंतज़ार करते करते बहुत देर हो गयी, तो उसने कहा चलो, मैं घर छोड़ आता हूँ ।
     वहां से चले तो बाहर पुरे चाँद की रात देखकर कोई स्कूटर टैक्सी लेने का मन नहीं किया । पैदल चल दिए पटेल नगर। पहुँचते पहुंचते बहुत देर हो गयी थी, इसलिए मैंने घर के नौकर से कहा मेरे लिए जो कुछ भी पका हुआ है, वह दो थालियों में डालकर ले आये ।
     रोटी आई, तो हर थाली में बहुत छोटी छोटी एक-एक तंदूरी रोटी थी । मुझे लगा कि एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा, इसलिए उसकी आँख बचाकर मैंने अपनी थाली की एक रोटी में से आधी रोटी उसकी थाली में रख दी।
     बहुत बरसों के बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा था - 'आधी रोटी; पूरा चाँद'- पर उस दिन तक हम दोनों को सपना सा भी नहीं था वक़्त आएगा, जब हम दोनों मिलकर जो रोटी कमाएंगे आधी-आधी बाँट लेंगे ....

___________________(इमरोज़ के बारे में लिखते हुए अमृता ; रशीदी टिकट से)

अमृता प्रीतम और इमरोज़ ; कि जैसे मंदिर में लौ दिए की

आज छब्बीस जनवरी गणतंत्र दिवस और छुट्टी का एक दिन जरा देर से सोकर उठता हूँ,  आदतन मोबाइल चालू करता हूँ कुछ अन्तराल के बाद ही एक मैसेज 'हरकीरत हीर' जी का ...
"आज इमरोज़ जी का जन्म दिन है" ओह ...मुझे कुछ याद क्यों नहीं रहता  अब .... मैसेज तो कान खींचकर भाग गया मेरे .....  मैंने हीर जी को कहा 'अरे मेरे पास उनका नंबर नहीं है कैसे बधाई दूं  .... हीर जी से नंबर लेकर फ़ोन करता हूँ वही शांत मीठी ध्यान में डूबी हुए हुई आवाज़ ... थोड़ी देर बात होती है शुभकामनाएं देने का बाद ..पूछते हैं तुमतो नज़्में लिखते हो न मैंने कहा जी हाँ , तो कहने लगे फिर एक नज़्म लिखकर मुझे भेजो वही होगा मेरे जन्मदिन का तोहफ़ा ... मैं सोचता रहा कि नज़्म खुद हैं वो  उनपर क्या नज़्म लिखूं  फिर भी :-


इमरोज़ ...
इंसान ...नहीं, मोहब्बत !
नहीं नहीं ...
'ख़ुदा'
हाँ इमरोज़.... ख़ुदा !
इससे छोटा कोई भी शब्द नहीं हो सकता तुम्हारे लिए
और इससे बड़ा शब्द नहीं जाना मैंने आजतक
जैसे तुमने नहीं जाना शिक़वा
नहीं जाना कुछ पाने की इच्छा
नहीं जाना फिर और कुछ भी
उसे जानने के बाद
बस हो गए प्रेम के
हो गए प्रेम।

इमरोज़
तुम्हीं हो सकते थे ये नज़ीर
कि जब जब प्रेम करने वालों को
धरती पर किसी अपने की जरूरत हो
वो ढूंढ ले तुम में
हर वो अक्स
जो पाक़ है , मुक़द्दस है
जो है नूर उस इश्क़ का
जिसकी ख़ुशबू से महक रहा है
जर्रा-जर्रा इस कायनात का
अमृता के महबूब
तुम्हें सलाम
कि इश्क़ की मिसाल
तुम्हें सलाम !

-आनंद की तरफ से जन्मदिन की बहुत बहुत मुबारकबाद !



गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कीमतों का मुद्दआ भर रह गया...

ज़ख्म है मरहम है या तलवार है,
आदमी हर हाल में लाचार है।

दे रहा है अमन का पैगाम वो,
जिसकी नज़रों में तमाशा प्यार है।

कीमतों का मुद्दआ भर रह गया,
हर कोई बिकने को अब तैयार है।

भाई इसको तो तरक्की न कहो,
मुफ़लिसों के पेट पर यह वार है।

पहले आयी गाँव में पक्की सड़क,
धीरे-धीरे  आ  गयी रफ़्तार  है ।

अपनी-अपनी चोट सबने सेंक ली,
क्या यही हालात का उपचार है  ?

क्या शराफ़त काम आएगी भला,
सामने वाला अगर मक्कार है ।

आपकी नाज़ो-अदा थी जो ग़ज़ल,
आजकल 'आनंद' का हथियार है ।

- आनंद 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

आदमी मैं आम हूँ




वक़्त का ईनाम हूँ या वक़्त पर इल्ज़ाम हूँ,
आप कुछ भी सोचिये पर आदमी मैं आम हूँ

कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने,
शख्सियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ़ कोई नाम हूँ

बिन पते का ख़त लिखा है जिंदगी ने शौक़ से,
जो कहीं पहुंचा नहीं, मैं बस वही पैगाम हूँ

कारवाँ को छोड़कर जाने किधर को चल पड़ा
राह हूँ, राही हूँ या फिर मंजिलों की शाम हूँ

है तेरा अहसास जबतक, जिंदगी का गीत हूँ
बिन तेरे, तनहाइयों का अनसुना कोहराम हूँ

दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द  का 'आनंद' हूँ  मैं,  प्यार  का अंजाम हूँ

- आनंद 

रविवार, 20 जनवरी 2013

अब न यारी रही न यार रहा ...

न तमाशा रहा न प्यार रहा
अब न यारी रही न यार रहा

मेरे अशआर भला क्या कहते   
न शिकायत न ऐतबार रहा

मैंने उससे भी सजाएं पायीं
जो ज़माने का गुनहगार रहा

जिक्र फ़ुर्सत का यूँ किया उसने
सारे हफ़्ते ही इत्तवार रहा

खुशबुएँ बेंचने लगे हैं गुल
इस दफ़े अच्छा कारोबार रहा

आज से मैं भी तमाशाई हूँ
आजतक मुद्दई शुमार रहा

ये बुलंदी छुई सियासत ने 
चोर के हाथ कोषागार रहा

दर्द का सब हिसाब चुकता है
सिर्फ़ 'आनंद' का उधार रहा

- आनंद 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

जब कभी अपने पास आता हूँ



मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

कोई मंज़र हसीं नही होता
अब कहीं भी यकीं नही होता
याद भी साथ छोड़ जाती है
आँख से बूँद टपक जाती है
डूब जाने का डर तो है लेकिन
गहरे सागर में उतर जाता हूँ

चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

शब्द का शोर नहीं भाता है
अर्थ  भी ठौर नहीं पाता है
रात इतना सुकून देती है
आजकल भोर नहीं भाता है
ये अंधेरे ही मीत लगते हैं
अब इन्हें ही गले लगाता हूँ


चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ


हर किसी की जुदा है राह यहाँ
मांगता  रह गया पनाह यहाँ
आह हासिल है चाह की, जाना
जान ली, आरज़ू गुनाह यहाँ
आह और चाह साथ ले जाकर
आज  जमुना में छोड़ आता हूँ


मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

- आनंद