मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ
कोई मंज़र हसीं नही होता
अब कहीं भी यकीं नही होता
याद भी साथ छोड़ जाती है
आँख से बूँद टपक जाती है
डूब जाने का डर तो है लेकिन
गहरे सागर में उतर जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ
शब्द का शोर नहीं भाता है
अर्थ भी ठौर नहीं पाता है
रात इतना सुकून देती है
आजकल भोर नहीं भाता है
ये अंधेरे ही मीत लगते हैं
अब इन्हें ही गले लगाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ
हर किसी की जुदा है राह यहाँ
मांगता रह गया पनाह यहाँ
आह हासिल है चाह की, जाना
जान ली, आरज़ू गुनाह यहाँ
आह और चाह साथ ले जाकर
आज जमुना में छोड़ आता हूँ
मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ
- आनंद