शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अब जाना है मुझे


अब जाना है मुझे !
कर लिया इंतज़ार
लिख लिया कवितायें और ग़ज़लें
सबको बता दिया कि तुम हो
मेरे शब्दों में साँसों में
और जीवन में भी
प्राण निकलने से ठीक पहले तक
जब कोई मिलने/देखने आता था
हर बार यही लगा कि... इस बार तुम हो
आखिर इस घड़ी तक तो आस थी ही
सारा जीवन यही तो सोचते रहे,  मरने से पहले कम से कम एक बार...
मन का चोर हर बार कहता रहा 'नहीं' 'वो क्यों ऐसा चाहेंगे'
ऐसे में तुम्हारी बात बार-बार याद आती
"मन के उपद्रव में मत पड़ना, ये लाख भटकाने की कोशिश करेगा"
"अपना यकीन बनाये रखना"
बना रहा मैं सारा जीवन
आशा और निराशा की जंग का मैदान
जब तक साँस तब तक आस
अब लगाना तुम कयास
पहले साँस टूटी
कि आस |

पर तुम्हें क्या पड़ी अपना समय जाया करो
ऐसी बेकार की बातों में,
हो सकता है कभी यह कविता
तुम्हारी नज़र से गुज़रे
इस लिये एक बात बता देता हूँ
मैंने तुम्हारे कहे अनुसार ही हमेशा खिड़की दरवाजे खुले रखे
पर कभी कोई नहीं आया
तुम्हारी ये दुनिया भी
एकदम तुम्ही पर गयी है
हाँ एक साथी मिला था, प्यारा सा
मुझे भाया भी बहुत
पर उसके पास मेरे लिये कुछ नहीं था
समय भी नहीं |

इस लिये अब राम राम !
राम ही क्यों ?
दो कारण हैं  एक तो खून में बहती बाबा की ये चौपाई ;
'जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं / अंत राम कहि आवत नाहीं'
और दूजा ये कि
तुम्हारा नाम ले लिया तो फिर ख़्वाब जाग जायेंगे
और मैं
सपनों के बीच में नहीं मरना चाहता |

- आनंद
 २०-१०-२०१२

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया


बे जरूरत इसे ख्याल  समझा गया
कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया

बात जब भी हुई मैंने दिल की कही
क्यों उसे शब्द का जाल समझा गया

महफ़िलें  आपकी  जगमगाती  रहें
आम इंसान बदहाल  समझा गया

हमने सौंपा था ये देश चुनकर उन्हें
मेरे चुनने को ही ढाल समझा गया

हालतें इतनी ज्यादा बिगड़ती न पर
देश को मुफ़्त का माल समझा गया

हाल  'आनंद'  के यूँ  बुरे  तो  न  थे
हाँ उसे जी का जंजाल समझा गया


- आनंद
१९-१०-२०१२

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

आनंद मिल भी जाएगा वो पास ही तो है

ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी  देखिये

माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये

धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी  के साथ में बहकर भी देखिये

अपना ही कहा था  कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये

जन्नत से  देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त  मेरे साथ में   रहकर भी देखिये

'आनंद' मिल भी जाएगा  वो  पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये

-आनंद
१५-१०-२०१२ 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

आँसू और सुगंध ...



तुम से मिली उपेक्षा से चिढ़कर
बहुत सारी बुराइयाँ आ बैठीं मुझमे
और जितनी भी अच्छाइयाँ हैं मेरे अंदर
वह सब की सब तुम्हारी हैं
बात बात में टोकना तुम्हारा
मैं झुंझला जाता था भले प्रकट नहीं करता था
पर तुम इस सबसे अंजान
बना रही थी
एक इंसान अपनी सोंचो के अनुरूप
आवरण और अहं विहीन
नतीजा आने तक तो रुकते तुम ...
तुम्हें किंचित भय था
इस राह से वापस न लौट जाऊं मैं बिना किसी सहारे के
पाकर खुद को अकेला
मगर
कहाँ जाऊं लौट कर
दुनिया जो पीछे छूट गयी है उसमें ?
अर्थहीन हो चुके संबंधों में ?
या फिर शब्दों और चेहरों की रेलमपेल में ?
आश्वस्त हो जाओ
मुझे अब पीछे मुड़कर देखना भी अजीब लगता है
खो गया है कहीं मेरा होना
जिसे नहीं ढूँढना चाहता मैं दुबारा
मैंने पार कर लिया है
वह चौराहा
जिस पर लाकर छोड़ा था तुमने
छोड़ आया हूँ पीछे वो सब जो मैं जानता था
आगे कुछ भी पहले से जाना हुआ नहीं है
अब तो हालात यह है कि
अगर कोई अगरबत्ती न जलाए
तो मुझे
महीनों तुम्हारी याद भी न आये

आँसू और सुगंध
नहीं नहीं
पानी और हवा
मुझे आज भी चाहिए जीने के लिये |

- आनंद
९/१०/१२

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

अजीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया


हरेक  रिश्ता सवालों  के  साथ जोड़  गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ  समंदर के पास  छोड़ गया  

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं  कुव्वत थी 
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं  मुकम्मल वजूद  मैं  अपना 
कहीं से जोड़ गया वो  कहीं से तोड़ गया 

हर घड़ी  कहता था 'आनंद'  जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया 

-आनंद 
१४ मई २०१२