सोमवार, 27 अगस्त 2012

अवधी में कुछ दोहे !

पहली बार अपनी अवधी में कुछ लिखा है  बहुत अच्छा लग रहा है


कब तक ना बोली भला, करी न सीधी बात
लौकी कुम्हड़ा तक घुसे  अम्बानी के तात

सिलबट्टा म्यूजिम चला सुनि मिक्सी का शोर
बहुरेऊ के  हाथ मा,    रहा  न  तिनुकौ जोर

बिरवा बालौ  ना  बचे  नहीं  बचे   खलिहान
ना जानै  को  लै  लिहिस,  गौरैया  कै  जान

पानिऊ सरकारी भवा, होइ जाओ हुशियार
कुआँ बाउरी  अब  नहीं,   बोतल  है  तैयार

लंन्घन कईके सोइगा, फिरि से बुधुआ आजु
सरकारी गोदाम मा,  'टरकन'  सरै   अनाजु

मँहगाई  का  देखिकै,   लागि   करेजे  आगि
जियत बनै न मरि सकी, कइसी  जाई  भागि

- आनंद
२७-०८-२०१२ 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

एक रूमानी गाँव की कथा



चिलियानौला 

वैसे तो वो एक गाँव है एक आम पहाड़ी गाँव
वैसे ही एक के ऊपर एक बने घर
वैसे ही घुमावदार मगर साफ सुथरे रास्ते, उतनी ही साफ़ सुथरी हवा और सामने हजरों फुट गहरी खायी के पार हिमालय की लुकाछिपी खेलती हुई धवल चोटियाँ
तीन रंग का यह गाँव
सुबह सिंदूरी
दोपहर में हरा
और रात में चम्पयी हो उठता है
पर एक बात यहाँ रहने वालों को भी नहीं मालुम की धरती पर यही एकमात्र वो जगह है जहाँ
सच में धरती और आकाश एक दूसरे से मिलते हैं ।
आकाश चूम  लेता है धरती को और धरती ....डाल  देती है बाहें आसमान के गले में , और अगर आप उस समय वहां हैं तो बड़े आराम से एक पाँव उठाकर चाँद पर चढ़ सकते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे कोई नीम के पेड़ पर पड़े हुए झूले पर चढ़ता है ।
चाँद पर होने के भी अपने सुख हैं
एक तो वहां बिना वजह के भगवान नहीं होते,
दुसरे वहां किसी वजह से भी शब्द नहीं होते ..............और तीसरा वहां केवल एक रंग है चाँदी का , शुभ्र , शांत और पूर्ण ।
वहां से नीचे घाटी में देखने पर आराम से देख सकते हैं धरती की धुंधली सी परछाई
चाँद से जरा ही आगे एक मोड़ है, जहाँ से दाहिने तरफ वाला रास्ता नीलम सी हरी भरी वादियों में होता हुआ आपको वापस उसी गाँव ले आता है,
जबकि बाएं तरफ वाली पगडण्डी चीड़ और देवदार के अनुशासित सिपाहियों के बीच से होते हुए आपको वहां पहुंचा देती है जहाँ जाने की चाह हर एक में जन्म से ही दबी रहती है ....
और अचानक आप पाते हैं कि
पांडवों के बाद
आप पहले ऐसे प्राणी हैं जिन्हें यह गौरव हासिल हुआ है ।

उस गाँव के बारे में एक और बेहद दिलचस्प सच ये है कि वहाँ से जो लौटता है वो एकदम वही नहीं होता जो वहां जाता है
वहाँ जाने और लौटने के बीच में
चुपके से
कई प्रकाश वर्ष खिसक जाते हैं
और हमें
ये बात बहुत बाद में पता चलती है ।




सोमवार, 20 अगस्त 2012

जब भी मिलता है, बहारों से मिला देता है





हाल दिल का, वो इशारों से बता देता है,
जब भी मिलता है, बहारों से मिला देता है !

किस नज़र देखता है हाय  देखने भर से ,
मेरी नज़रों को नजारों से मिला देता है !          

जब भी आगोश में लेता है तो दरिया बनकर,
प्यास को, गंगा की धारों से मिला देता है  !

जब कभी मुझको वो पाता है जरा भी तनहा,
अपनी यादों के,   सहारों से मिला देता है  !

कितना भी तेज़  हो तूफान वो मांझी बनकर ,
मेरी कश्ती को,   किनारों से मिला देता है  !

हाँ ये सच है की खुदा, खुद नहीं करता कुछ भी,
बस वो 'आनंद' को,  यारों से मिला देता है    !!

           -आनंद द्विवेदी  २३-०५-२०११  

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

जन्म दिन के बहाने




जन्म दिन के बहाने 



कान्हा !
मथुरा नहीं गया आज मैं ...
इधर नंद गांव में आगया  
सारे जीवन उस भूमि की तरफ पांव नहीं किया  
जहाँ संघर्ष का अंदेशा हो  
बचाते रहे हमेशा किसी न किसी तरह  ...जिलाए रखा आपने  
नंद बाबा के द्वारे कतार में खड़ा है
एक मंगता  
आम तौर पर उपहार देने की परंपरा है जन्मदिन पर  
सुदामा के बारे में सुना भी है  ...
पर नहीं है  
भाव का मुट्ठी भर तंदुल भी,  
देना सीखा होता तो  जरूर देता कोई न कोई उपहार  
काश अहं दे पाता  ... आपको भी अच्छा लगता  
पर मंगता प्रवत्ति से मजबूर हूँ आज भी  
समय के साथ कुछ सयाना भी हो गया हूँ  
आपको माँगूँगा एक दिन  
आपसे ही !

माधव !
मन करता है कि आपसे प्रेम हो जाए  
बहुत सुना है इस प्रेम के बारे में  
कभी जाना नहीं  
लोग कहते हैं कि  
खुद को मिटाना पड़ता है  
आग़ में जलना पड़ता है
'खुसरो दरिया प्रेम का' और 'रहिमन प्रेम तुरंग चढ़ी'
और भी जाने क्या क्या 
आपको लगता है  
मुझसे कुछ हो पायेगा ?
एक बार आप ट्राई करो न 
अब नहीं सहा जाता  माधव  
अब नहीं रहा जाता रे...छलिया !

खैर
मेनी मेनी रिटर्न्स ऑफ द डे  
जन्मदिन मुबारक हो ! 


१०-९-२०१२  

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

माँ का हरा रंग ...



उसके कानों में 
इन्द्रधनुष की बालियाँ हैं 
घनघमंड उसकी आँखों में बसते हैं 
उसके आँसुओं से 
दुनिया भर के मानसूनी जंगलों को 
जीवन मिलता है 
हरा सावन 
हरी चूड़ियाँ 
हरी हरी मेहँदी ... और 
जब वो नाचकर गाती है 'हरियाला बन्ना आया रे' 
तब
मैंने कई बार देखा है
वहाँ की ज़मीन हरी हो जाती है
कई बार जब वो अपने लिए
एक अदद हरा समन्दर खोजने निकलती है
एक साधू बाबा
उसकी राहों को बुहारता हुआ अक्सर दिख जाता है
ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर
हरे ग्रह की ओर जाती हुई
मेरी माँ
ढाई क़दमों में ही नाप लेती है
इस कायनात को
फ़कीर मुस्कराता है
और माँ भी !
फिर भी उसे खुद से शिकायत है
कि
ये आसमान नीला क्यों है
और
उसकी चमड़ी का रंग
हरा क्यों नहीं है !
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- आनंद द्विवेदी 
९ -०८-२०१२