सोमवार, 4 जून 2012

आजकल हर सांस ही उनकी बयानी हो गयी






आजकल हर सांस ही उनकी बयानी हो गयी
मेरी हर धड़कन मोहब्बत की कहानी हो गयी 

मेरी खुशियाँ, मेरी बातें, मेरे सपने, मेरे गम 
मेरी हर इक बात अब उनकी निशानी हो गयी

सादगी मासूमियत की बात मैंने की मगर 
उन तलक पहुंची तो कुछ की कुछ कहानी हो गयी 

चाँद उसका रात उसकी और वो नाचीज़ की 
पहले वो शबनम लगी फिर रातरानी हो गयी 

आजकल ख्वाबों में भी इक ख़्वाब आता है मुझे 
मेरी उनकी आशिकी सदियों पुरानी हो गयी

उनकी बाँहों में मरूं या उनकी राहों में मरूं
फर्क क्या है जब उन्ही की जिंदगानी हो गयी

मैं चला, 'आनंद' से यह  बात कहनी है मुझे
देख तुझपे क्या  खुदा की हरबानी हो गयी

- आनंद
०४ जून २०१२







रविवार, 3 जून 2012

एक विज्ञापन ...जो अक्षरसः सत्य है ..पर शायद गैरकानूनी है

यह न कोई शिगूफा है ...न कोई कविता और न ही चर्चा में आने का सस्ता हथकंडा

मैं (आनंद द्विवेदी) खुद को बेंच रहा हूँ ! और चूँकि मैं इसी समाज में रहता हूँ इसलिए ये बात सोशल नेटवर्किंग के जरिये भी कह रहा हूँ, मैं  बहुत गंभीर हूँ इसलिए आपसे गुजारिश है कि 'आफर दस्तावेज' को बहुत ध्यान से पढ़िए !
पहले प्रोडक्ट परिचय
आनंद द्विवेदी 
स्नातक 
उम्र ४३ वर्ष ! पब्लिक रिलेशंस के क्षेत्र में २० साल का अनुभव
शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ, जिम्मेदार, इमानदार, बात के पक्के (इन बातों का वाणिज्यिक रूप से कोई महत्त्व नहीं)
किसी भी तरह का कोई संक्रामक रोग नही |

प्रोडक्ट की कीमत
25,00000 ( रूपये २५ लाख मात्र ) किसी को यह रकम बहुत ज्यादा लग सकती है किसी को कम ..पर मेरे लिए न कम है न ज्यादा

अब
प्लस प्वाइंट और रिस्क फैक्टर
पहले प्लस प्वाइंट
१- देसी और मेहनती आदमी है | गांव में किसानी के सारे कामों से लेकर शहरी जिंदगी के सारे कामो को बखूबी अंजाम दे सकता है !
२- घर में झाड़ू पोंछा से लेकर घर के सारे काम (खाना बनाना नहीं आता) ऑफिस मैनेजमेंट कम सुपरविजन, फैक्ट्री में कोई भी काम | काम अगर बहुत टेक्नीकल है तो बंदा भी बहुत कुशाग्र बुद्धि का है कोई भी बात दो बार से ज्यादा नहीं समझानी पड़ती |
३- कंप्यूटर से सम्बन्धित सारे वो काम जो एक आम ऑफिस के लिए जरूरी होते हैं |
४- अगर पढ़ने और लिखने की खुली  छूट दी जाये तो...इन्वेस्ट की गयी रकम आश्चर्यजनक रूप से बहुत जल्दी रिकवर की जा सकती है |
५- जिंदगी और समाज की अपनी उम्र से ज्यादा समझ है ... कभी भी इसका उपयोग किया जा सकता है !
६- बिकने के तुरंत बाद से ही शरीर, नाम और मजहब स्वयं का नहीं क्रेता (खरीददार) के अनुसार रहेगा  और क्रेता के  पूर्ण स्वामित्व में रहेगा | और इसी से यह बात भी साफ़ है कि क्रेता को पूर्ण अधिकार होगा कि वो इस शरीर को कैसा खाना दे कितना दे ...क्या पहनने को दे क्या ना दे  जैसे रखना चाहे रखे ! 
७- क्रेता को जब भी लगे कि अब प्रोडक्ट उसके काम का नहीं रह गया है वह उसे तत्काल मुक्त हो सकता है ! क्रेता का प्रोडक्ट पर स्वामित्व तो रहेगा ..मगर कोई भी जिम्मेदारी नहीं !
अब रिस्क फैक्टर
१- प्रोडक्ट नवंबर में ४४ साल का हो जायेगा .... युवाओं की तरह बहुत अधिक शारीरिक श्रम की उम्मीद ना करें 
२- सौदा 'संपन्न' होने के बाद प्रोडक्ट डिलवरी में ४ से ५ दिन का समय लगेगा (ये समय कुछ देनदारियां निपटाने और गांव कि कुछ पुश्तैनी अचल संपत्ति को परिवार के नाम हस्तांतरित करने में लगेगा इस दौरान क्रेता या उसका कोई नामित प्रतिनिधि प्रोडक्ट को अपनी निगरानी में रख सकता है )
३- चूँकि प्रोडक्ट एक शरीर भी है  जिसकी कोई गारंटी नहीं होती ...इसलिए क्रेता को प्रोडक्ट का बीमा करवाने की सलाह दी जाती है !
नोट :- यह एक फेसबुकिया स्टेटस नहीं है ...इसे लाइक और इस पर कमेन्ट ना करें ! इच्छुक खरीददार  anandkdwivedi@gmail.com पर मेल करें | मेमोरंडम ऑफ़ अन्डरस्टैंडिंग  बनवाते समय कानूनी पहलुओं का ध्यान रखा जायेगा और ये खरीददार और प्रोडक्ट जैसे शब्द वकील की सलाह के अनुसार हटाये जा सकते हैं |
धन्यवाद !

शुक्रवार, 25 मई 2012

मैं उस जमाने का हूँ ... (कवितानुमा एक कथा )






मैं उस जमाने का हूँ 
जब 
दहेज में घड़ी, रेडियो और साइकिल
मिल जाने पर लोग ...फिर 
बहुओं को जलाते नहीं थे 
बच्चे 
स्कूलों के नतीजे आने पर 
आत्महत्या नहीं करते थे 
बल्कि ... स्कूल में मास्टर जी 
और घर में पिताजी,  उन्हें बेतहासा पीट दिया करते थे
बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक 
बच्चे ही रहा करते थे 
तब 
मानवाधिकार कम लोग ही जानते थे !

मैं उस जमाने का हूँ 
जब 
कुँए का पानी 
गर्मियों में ठंढा और सर्दियों में गरम होता था 
घरों में फ्रिज नहीं मटके और 'दुधहांड़ी' होती थी  
दही तब  सफेद नहीं 
हल्का ललक्षों हुआ करता था 
सर्दियों में कोल्हू गड़ते ही
ताज़े गुड़ की महक....अहा !  लगता था 
धरती ने आसमान को खुश करने के लिए 
अभी अभी 'बसंदर' किया हो
अम्मा 
गन्ने के रस में चावल डालकर 'रस्यावर' बना लेती थी 
आम की  बगिया तो थी पर 'माज़ा' नहीं 
'राब' का शरबत तो था  
पर कोल्डड्रिंक्स नहीं
पैसे बहुत कम थे
पर  जिंदगी  बहुत मीठी !

मैं उस जमाने का हूँ 
जब 
गर्मियां आज जैसी ही होती थीं 
पर एक अकेला 'बेना'
उसे हराने के लिए काफी होता था 
दोपहर में अम्मा, बगल वाली दिदिया
और उनकी सहेलियों की महफ़िल 
'काशा' और 'फरों' की रंगाई 
'
डेलैय्या' और 'डेलवों' की एक से बढ़कर एक डिजायनें और उनपर नक्कासी 
सींक से बने 'बेने' और उनकी झालरें
कला ! तब सरकार की मोहताज नहीं थी
बल्कि जीवन में रची बसी थी !

मैं उस ज़माने का हूँ 
जब 
गांव में खलिहान हुआ करते थे 
मशीनें कम थीं 
इंसान ज्यादा 
लोग बैल या भैसो कि जोड़ी रखते थे 
महीनों 'मड्नी' चलती थी 
तब फसल घर आती थी
'
कुनाव' पर सोने का सुख 
मेट्रेस पर सोने वाला क्या जाने 
अचानक आई आंधी से भूसा और अनाज बचाते हुए ..हम 
न जाने कब 
जिंदगी की आँधियों से लड़ना सीख गये 
पता ही नही चला !

मैं उस जमाने का हूँ 
जब 
किसान ...अपनी जरूरत की हर चीज़ ...जैसे
धान, गेंहू, गन्ना, सरसों, ज्वार, चना, आलू , घनिया
लहसुन, प्याज, अरहर, तिल्ली और रामदाना ....सब कुछ
पैदा कर लेता था
धरती आज भी वही है ...पर आज 
नकदी फसलों का ज़माना है 
बुरा हो इस 'पेरोस्त्राईका' और 'ग्लास्नोस्त'  का 
बुरा हो इस आर्थिक उदारीकरण  का 

जिस पैसे के पीछे इतना जोर लगा के दौड़े 
अब 
 तो उस पैसे की कोई कीमत है 
और न इंसान की !!

-
आनंद द्विवेदी
२५ मई २०१२ 

शुक्रवार, 11 मई 2012

आख़िरी ख़त जला रहा हूँ मैं


मुस्कराहट बहुत जरूरी है,  इसलिए   मुस्करा रहा हूँ मैं,
यार कोई तो मर्सिया पढ़ दो, आख़िरी ख़त जला रहा हूँ मैं |

कितनी हसरत से एक दिन मैंने, तेरे कूचे में घर बनाया था,
'वक़्त की बात' इसे कहते हैं, अब वही घर जला रहा हूँ मैं  |

रक्खे रक्खे ख़राब होने हैं, ख्वाब अब काम के नही मेरे,
सोंचता हूँ के बेंच दूं इनको, आज बाज़ार जा रहा हूँ मैं  |

मंजिलें कब किसी कि होती हैं, साथ अपने सफ़र ही रहता है,
आओ तन्हाइयों यहाँ से चलें, अब कहीं और जा रहा हूँ मैं |

जिन्दगी! वाह जिंदगी मेरी, तू भी उसकी हुई तो हो ही गयी,
पहले दिल था जहाँ पे सीने में, अब मज़ारें बना रहा हूँ  मैं |

लाख 'आनंद' से कहा मैंने,  तू उसे भूल क्यों नही जाता,
सिरफिरा रोज यही कहता है, सारी दुनिया भुला रहा हूँ मैं |


-आनंद
०९/०५/२०१२ 

रविवार, 29 अप्रैल 2012

जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियां







मुस्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियां
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियां

'पापा' को कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर,
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़कियां

फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियां

'उनमें'...किसी मशीन में, इतना ही फर्क है
सूने  में  बड़े  जोर  से,  रोती  हैं  लड़कियां

टुकड़ों में बांटकर कभी,  खुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियां

फूलों का हार हो,  कभी बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियां

'आनंद' अगर अपने तजुर्बे  कि  कहे तो
फौलाद हैं,  फौलाद ही होती हैं लड़कियां

-आनंद द्विवेदी
२९ अप्रेल २०१२