शनिवार, 9 अप्रैल 2011

क़तरा क़तरा एक समंदर सूख गया





लम्हा लम्हा करके लम्हा छूट  गया
क़तरा  क़तरा एक समंदर सूख गया  !

और हादसों के डर से, वो तनहा था  ,
तनहा तनहा रहकर भी तो टूट गया !

मैं कहता था न, ज्यादा सपने मत बुन, 
वही हुआ , सपनों का दर्पण टूट गया  !

फिर कोई मासूम सवाल न कर बैठे ,
बस इस डर से ही, मैं उससे रूठ गया  !

मेरी फाकाकशी  सभी को मालूम थी ,
फिर भी कोई आया  मुझको लूट गया

उसकी बातों से तो ऐसा लगता  था ,  
जैसे कोई दिल का छाला फूट गया !

जो 'आनंद' नज़र आता है, झूठा है ,
उसका सच तो कब का पीछे छूट गया !

  --आनंद द्विवेदी ०९/०४/२०११ 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

नया ब्लेड




कल देखा है तुम्हें बहुत गौर से
मैने अपनी कविता में
तुम खड़े थे
तुम हंस रहे थे 
तुम मुस्करा रहे थे
तुम कुछ कह रहे थे शायद
मैं केवल सुन रहा था और सोंचे जा रहा था कि
जज्बात तो हैं ....संभालना इन्हें.....खेलना मत
बढ़ते जाना
पैरों के नीचे मत देखना कभी भी
वहां रूकावट होती है ....पैरों के पास
किसी के कुचले जाने का डर भी
दर्द की चादर ओढ़े रहना
दर्द को जीना नही
चादर उतारने में ज्यादा सहूलियत होती है.
जीवन बदलने की बनिस्बत!

फिर बाद में जब  तुमने ठुकराया न 
मुझे... 
तभी अचानक मुझे भी 
समझ में आगया था 
कि विद्वान लोग 'अटैचमेंट ' को 
इतना बुरा क्यूँ कहते हैं
पहली बार  दर्द से जीत गया मैं 
थैंक्स अ लाट आपको
मुझे जरा  भी दर्द नहीं  हुआ 
जैसे एकदम नया ब्लेड निगल लिया हो 
बड़ी सफाई  से अन्दर तक  काटा है
बिना कोई दर्द दिए 
ये कला भी सब के पास कहाँ होती है 
पर एक बात है
मैं भी बहुत ढीठ आदमी हूँ.
देखना फिर पडूंगा अटैचमेंट के चक्कर में
मैंने कब कहा कि...
मैंने  प्यार करना छोड़ दिया है
मैंने कोई चादर थोड़े ओढ़ी थी
जो उतार दूँ
तुम एक  नया ब्लेड लेकर रख लो
मैं जल्दी ही फिर आऊंगा !

      --आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११

मुझे 'आनंद' होना था...




मुझे होशियार लोगों  को कभी ढोना नहीं आया
मुझे उनकी तरह बेशर्म भी होना नहीं आया 

मैं यूँ ही घूमता था नाज़ से, उसकी मोहब्बत पर 
मेरे हिस्से में उसके दिल का इक कोना नहीं आया 

अगर सुनते न वो हालात मेरे,  कितना अच्छा था
ज़माने भर का गम था, पर उन्हें  रोना नहीं आया 

ज़माने   को बहुत ऐतराज़,  है मेरे उसूलों पर
वो  जैसा चाहता है, मुझसे वो होना नहीं आया

नहीं हासिल हुई रौनक, तो उसकी कुछ वजह ये है 
बहुत पाने की चाहत थी मगर  खोना नहीं आया  

मैं अक्सर खिलखिलाता हूँ, मगर ये रंज अब भी है
मुझे  'आनंद' होना था ...मगर होना  नहीं  आया  |

             -आनंद द्विवेदी ०६/०४/२०११

मंगलवार, 29 मार्च 2011

दो क्षणिकाएं ...

१- मेरा प्यार ...

मैं ..
किसी दूसरे का था 
वो..
किसी दूसरे के थे 
मगर वो दूसरा  भी 
किसी दूसरे का था...
जो 
उनका था वो कोई
दूसरा  ही था ...!
फिर भी वो हमारे थे
हम उनके थे 
ऐसा था मेरा प्यार 
जैसे .....
आम सहमति पर आधारित 
किसी राजनैतिक पार्टी का घोषणा पत्र !!



२- कभी सोंचा है ..?

गरीब का खून 
जैसे नीम्बू  का रस ..
आखिरी बूँद तक निचोड़ो 
और फेंक दो ..
कूड़े  के ढेर में ...सूखने के लिए 
अब तक तो 
पतन हो जाता इस देश का 
किन्तु यह टिका है 
गरीब के कन्धों पर ....
यह भी कभी सोंचा है ??

--आनंद द्विवेदी २९/०३/२०११

सोमवार, 28 मार्च 2011

एक क्षण के लिए ...


मुझे आज तुझसे
सच में प्यार हो गया है
हमेशा ही पास से कतराकर
निकल जाने वाली ..
मेरे आंसुओं से ही
खुद को गुलजार रखने वाली ..
मेरी बेबसी पर जश्न ...
और मेरी जरा सी भूल पर
आसमान सर पर उठा लेने वाली ..
मेरी हर चाहत को  कुचलकर
अट्टहास करने वाली
ऐ मेरी बेशर्म जिंदगी
मुझे आज तुझसे
सच में प्यार हो गया है...


ये प्यार होता ही है ऐसा
जब होता है तब 
नहीं देखता दोस्त और दुश्मन
कोई बुराई नजर ही नहीं आती
अँधा कहीं का !
नहीं सुनता किसी और की आवाज़
ताने, व्यंग , षड्यंत्रों की सरगोशियाँ
कुछ बुरा सुनाई ही नहीं देता इसको
बहरा कहीं का !
चुपचाप सह लेता है
हर जुल्म ज़माने का भी और तेरा भी
अपने में ही खोया
एक बार भी उफ़ नहीं करता
गूंगा कहीं का ...........
पर एक बात कहूँ? 
ऐसा जब भी होता है
जीवन  का वो लम्हा
उस सारे जीवन से
और ...
सदियों से भी  ज्यादा कीमती  होता है
क्योंकि उस एक क्षण
श्रृष्टि होती है...
अपने सबसे सुन्दरतम रूप में !     
     
  --आनंद द्विवेदी  २८/०३/२०११