सोमवार, 4 अगस्त 2014

तेरा होना

दुनिया के सारे अभावों
सारी कमियों पर भारी पड़ता है
एक तेरा होना
तेरा होना हूबहू तो नहीं पर
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे एक सैनिक ने पहन रखा हो कवच
और ले रखी हो ढाल जीवन की सबसे कठिन लड़ाई में,
जैसे भाई की बीमारी की ख़बर सुन
झट से आ गया हो
परदेश गया भाई,
जैसे निराशा भरे समय में चुपचाप रख दे
कोई दोस्त कंधे पर अपना हाथ,
जैसे पिता के होते बच्चों के जीवन में बनी रहे
एक अनजान लापरवाही,

तेरा होना कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे सरहद पर किसी फौजी को मिल जाए
घर से आई चिट्ठी,
जैसे जेठ की किसी बेहद गर्म शाम में
हल्के हल्के झोकों से चल पड़े पुरवाई,
जैसे हवनकुंड हो जाये यह सारी देह
दूर तक हवा की दिशा में जाए
गूगर धूप और चंदन के जलने की महक,
जैसे जीवन की राहों पर मिल जाए
अपना मनचाहा साथ,
जैसे तारों भरी आधी रात में
नाच उठे कोई फ़कीर,

असल में तेरा होना
कुछ कुछ वैसा ही है
जैसे मुकम्मल हो जायें
जीवन के लाखों आधे अधूरे ख्वाब !

- आनंद






रविवार, 27 जुलाई 2014

अपने अपने भय

मत बढ़ाना एक भी कदम
मेरी तरफ़
कि मेरा पहले से ही भयभीत भय
सहम जाता है जरा और
वो जानता है कि
पास आने के लिए उठा हर कदम
अंततः दूर ही ले जाता है
जैसे हर सुख की परिणिति
अवश्यम्भावी है दुःख !
जैसे हर शब्द युग्म में आवश्यक रूप से होता है
उसका विलोम
जैसे जीत में हार
और जन्म में मृत्यु

मेरा भय, भयभीत नहीं हुआ जीवन से
न ही उसके संघर्षों, जटिलताओं से
वो न भूख से डरा न प्यास से
न श्रम से न थकान से
'प्रत्येक क्रिया की आवश्यक प्रतिक्रिया' को
ठीक से समझता
मेरा भय
भयभीत है तो बस किसी के पास आने से
कोई रिश्ता बनाने से
कुछ भी और पाने से !

- आनंद




शनिवार, 26 जुलाई 2014

न दुःख न सुख ...

पलटता है जब भी वो
मेरी तरफ
उस राह पर पहले से ही बिछी हुई मेरी आँखें
झट से बरस पड़ती हैं
दुःख से नहीं
ख़ुशी से भी नहीं
केवल इसलिए कि राह पर धूल न उड़े
मुलायम हो जाए वो कच्ची पगडण्डी जो राजमार्गों से बहुत दूर
मेरी दुनिया में उतरती है
जिस पर अब कोई
भूल से भी पाँव नहीं रखता !

- आनंद

रविवार, 6 जुलाई 2014

कुछ मुझमे भी हुनर नहीं था ...

कुछ मुझमें भी हुनर नहीं था कुछ उसपर इख्तयार नहीं
कुछ तो सब्र नहीं था मुझको कुछ उसको भी प्यार नहीं 

अंदर दालानों में आकर रुके मुसाफ़िर क्या समझें 
ये दिल की बारादरियां हैं पत्थर की दीवार नहीं 

कान तरसते हैं जीवन भर जाने किन आवाज़ों को  
किस को देखे बिन ये आँखें मुंदने  को तैयार नहीं 

ज़ुल्म रोक लेता है जब तक, गुस्सा जब तक आता है 
तब तक समझो हम इन्सां हैं अभी हुए बाज़ार नहीं 

खुद से बंधी हुई है हर शै,  सब के सर पर गठरी है 
अंदर खाने लाचारी है, बाहर कुछ स्वीकार नहीं 

जो कुछ मिला शुक्र है मौला, अब औरों पर रहमत कर 
कुछ हम भी मसरूफ़ इधर हैं कुछ दिल भी तैयार नहीं 

खुद को हर पल खोता जीवन, बढ़ता मंज़िल पाने को  
मिल जाना 'आनंद' डगर में, मुश्किल है दुश्वार नहीं 

- आनंद 

शुक्रवार, 27 जून 2014

पीर हमारी...

पीर हमारी भीगी माचिस तीली सी
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी

रूह भटक कर पैठी है जिस पिंज़र में
उसकी सब  दीवारें सीली-सीली सी

मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी

दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी

बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी

मत 'आनंद' गँवा रे मन सब धोखे हैं 
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी

- आनंद