शनिवार, 20 जुलाई 2013

अपने तमाम जख्म छुपाते हुए मिला

अपने तमाम ज़ख्म छुपाते हुए मिला
इक शख्स मुझे 'दूर से' जाते हुए मिला

तेरा शहर तो खूब है मंजिल से राब्ता
जो भी मिला वो राह बताते हुए मिला

अब तक मेरे हबीब की आदत नहीं गयी
पहले की तरह ख़्वाब दिखाते हुए मिला 

उम्मीद के झोले में भरे ग़म की पोटली
कोई शहर में गाँव से आते हुए मिला

ग़म की फिकर करूँ या रंज़ यार का करूँ  
दुश्मन का काम दोस्त निभाते हुए मिला  

'आनंद' को जीने का सलीका नहीं आया   
जब भी मिला वो चोट ही खाते हुए मिला 

- आनंद 


शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

मेरा जब फाकों का मौसम...

मेरा जब फाकों का मौसम, उनका है त्योहारों का
मेरा रुख है गाँव-गली का, उनका है बाजारों का

देश चलाने वाले हाकिम, जनगणना करवा लेंगे
एक अनार रहेगा भाई, अब  हजार बीमारों का

पैसे की ताकत भी देखी, मुफ़लिस की मजबूरी भी
कलुवा की बेटी ने देखा, गुस्सा इज्ज़तदारों का

किसके हाथों में बंदूकें, किसके सीने में गोली
चाहे जिसका भी घर उजड़े, काम सियासतदारों का    

इसे हलफ़नामा ही समझो, वैसे ये ख़ामोशी है
दिल के जख्मों से लेना है काम मुझे अंगारों का

वैसे तो 'आनंद' बहुत है, मीठी मीठी बातों में
लेकिन अब लिखना ही होगा किस्सा अत्याचारों का

- आनंद



शनिवार, 29 जून 2013

गली गली मंदिर मस्जिद हैं

गली गली मंदिर मस्जिद हैं  गली गली मैख़ाने हैं
फिर भी कितनी तन्हाई है फिर भी दिल वीराने हैं

तेरा शहर भला है हमको, रुसवाई तो मिलती है
मेरी नगरी की मत पूछो, अपने भी बेगाने हैं

दिल भी और ज़ख्म मांगे है हम भी खाली खाली हैं
आँसू, ख़ामोशी, बेचैनी, ये सब  तो पहचाने हैं

फिर इक बार मिलें तो जानें दुनिया कितनी बदली है
वरना तेरे पत्थर दिल के  किस्से ही तो गाने हैं

क्या होता है दिलवालों को क्या से क्या हो जाते हैं
क्यों दिल में आकर बसते हैं जब दुश्मन हो जाने हैं

यारों के अहसान बहुत हैं, इस छोटे से जीवन पर
कुछ का जीकर कुछ का मरकर, सारे कर्ज चुकाने हैं

- आनंद





बुधवार, 19 जून 2013

अम्मा की याद

मै यह न मान सकूंगा
की प्रेम भरे पेट का तमाशा है
मेरी अम्मा
बासी रोटी खाती थी कई बार वह भी नहीं होती थी
छातियों में दूध नहीं होता था फिर भी मैं लटका रहता था
बेबसी में भी नहीं दुत्कारती थी मुझे
बप्पा पर खीझते उमर बीती उनकी
बप्पा खाते थे चार मोटी मोटी  पनेथी एक बार में
और रहते थे मस्त
घर में क्या है क्या नहीं है ..है तो कैसे और कहाँ से आया बप्पा से नहीं था मतलब
आश्चर्य होता है कि  डेढ़ हड्डी की माँ कैसे करती थी इतना सब
कुटना, पिसना, झाड़ू, बहारू, चारा, पानी
और जहाँ आँगन की मिट्टी  जरा भी कहीं से खुदे ...लीपने बैठ जाती थी सारा घर
गाँव में आये दिन बोलउवा ...
अम्मा रखती थीं बोलउवा में जाने के लिए तंजेब की एक विशेष चद्दर जिसे 'पिछउरी' कहती थी वो  
कभी 'सकठ' के लड्डू ... तो कभी 'दुरदुरैया' की पूजा
कभी 'गउनई'  
हर काम समय पर
आज सोचता हूँ तो असंभव सा लगता है
लड़के के बड़े होने की आस में काट दिया हर दुःख, 
उन्हें
न पति से सुख मिला न ही बेटे से ... 
आश्चर्य है कि अम्मा फिर भी नहीं रहीं कभी मेरी आदर्श
जबकि वो थीं

अम्मा ! कुछ साल और रुक जाती तुम ...
आज एयरकंडीशन में सोते हुए
तुम्हारी पसीने से भीगी देह की गंध बहुत याद आती है
और याद आता है रोज़ दोपहर को तुम्हारे हाथ का बना खाना
सच्ची अम्मा
तुम्हारे बाद एक बार भी नही खाया 'सेंउढ़ा'
न ही जोंधरी की रोटी । 

(सेंउढ़ा = बरसात की ऋतु  का एक विशेष व्यंजन जिसे अरबी के पत्तों पर बेसन और मसाले का मिश्रण लपेट कर फिर रोल बनाकर तला जाता है ) 
जोंधरी = ज्वार  
 

मंगलवार, 11 जून 2013

यह कविता नहीं है ...

भिनसहरे पहर  
कौवा बोले जब जरा ठंढी होती है 
तपती हुई यह धरती.... और 
जलता हुआ दिल,  
मौसम कैसा भी हो उस समय 
थोड़ी बयार चलने ही लगती है 
फ़ज्र की अज़ान  से जरा पहले 
किसी ने आहिस्ता से पुकारा 
कितना सोते हो...
लगा ... दुनिया खुशबू से भर गयी है 
रात तो नज़्म की आँखें भी नम थी ... फिर इतनी अलसुबह ?
आँख खोलना चाहा
पर उसने रख दिया आँखों पर हथेली 
अरे ये क्या कर रहे हो .... अब नहीं देख पाओगे मुझे 
बस एक बार ...मैंने कहा,
उसने भी कहा हाँ बस एक बार ... पर अभी नही 
पिंजरे में लगी खिडकियों की एक सीमा है 
और मेरे जहान की ख़ूबसूरती असीम,
ये ख़ूबसूरती देखने के लिए इस पिंजरे से बाहर आना होगा... 
वह चली गयी 
मंदिर में भजन बजने लगे थे 
हथेली पर ताज़ा मेंहदी की खुशबू थी 
इसी से मैंने ये अंदाज़ा लगाया ...कि
उसकी दुनिया भी मेरी जैसी ही है 
हो न हो 
वहां भी लोग ख्वाब देखते हों
और कर बैठते हो प्रेम...

सुनो 
मैं पिंजरे से निकलूंगा 
तब तुम तो किसी पिंजरे में नहीं मिलोगी ?  

-आनंद