अपने तमाम ज़ख्म छुपाते हुए मिला
इक शख्स मुझे 'दूर से' जाते हुए मिला
इक शख्स मुझे 'दूर से' जाते हुए मिला
तेरा शहर तो खूब है मंजिल से राब्ता
जो भी मिला वो राह बताते हुए मिला
उम्मीद के झोले में भरे ग़म की पोटली
कोई शहर में गाँव से आते हुए मिला
अब तक मेरे हबीब की आदत नहीं गयी
पहले की तरह ख़्वाब दिखाते हुए मिला
पहले की तरह ख़्वाब दिखाते हुए मिला
उम्मीद के झोले में भरे ग़म की पोटली
कोई शहर में गाँव से आते हुए मिला
ग़म की फिकर करूँ या रंज़ यार का करूँ
दुश्मन का काम दोस्त निभाते हुए मिला
'आनंद' को जीने का सलीका नहीं आया
जब भी मिला वो चोट ही खाते हुए मिला
- आनंद
बहुत ही सुंदर गजल
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारे
गुरु को समर्पित
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_22.html