शनिवार, 11 मई 2013

माँ

बावरी हुई है मातु प्रेम प्रेम बोलि रही
तीन लोक डोलि डोलि खुद को थकायो है
गायो नाचि नाचि कै हिये की पीर बार बार
प्रेम पंथ मुझ से कपूत को दिखायो है 

भसम रमाये एकु जोगिया दिखाय गयो
कछु न सुहाय हाय जग ही भुलायो है
धाय धाय चढ़त अटारी महतारी मोरि
छोड़ि लोक लाज सभी काज बिसरायो है

पायो है महेश अंश दंश सभी दूरि भये
धूरि करि चित्त के विकार दिखलायो है
भूरि भूरि करत प्रसंशा जगवाले तासु
मातु ने आनंद को आनंद से मिलायो है

- आनंद 

शुक्रवार, 10 मई 2013

बैठा हुआ सूरज की अगन देख रहा हूँ

बैठा हुआ सूरज की अगन देख रहा हूँ
गोया तेरे जाने का सपन देख रहा हूँ

मेरी वजह से आपके चेहरे पे खिंची थी
मैं आजतक वो एक शिकन देख रहा हूँ

सदियों के जुल्मो-सब्र नुमाया है आप में
मत सोचिये मैं सिर्फ़ बदन देख रहा हूँ

दिखती कहाँ हैं आँख से तारों की दूरियाँ
ये कैसी आस है कि  गगन देख रहा हूँ

रंगों से मेरा बैर कहाँ ले चला मुझे
चूनर के रंग का ही कफ़न देख रहा हूँ

जुमले तमाम झूठ किये एक शख्स  ने
पत्थर के पिघलने का कथन देख रहा हूँ

'आनंद' इस तरह का नहीं, और काम में
जलने का मज़ा और जलन देख रहा हूँ

- आनंद 

शनिवार, 4 मई 2013

रुअक्कड़

मैंने देखा किसी तस्वीर में
तुमने पहनी है वही  साड़ी  जिसे हमने खरीदा था साथ-साथ
उस दिन तुमने जानबूझकर
सस्ती साड़ी  खरीदी थी न ?
तुम्हारी तस्वीरें रुलाती हैं बहुत
जब भी बातें करता हूँ उनसे
यादें उससे भी ज्यादा
बहुत रोकता हूँ खुद को
मगर अक्सर
इकतरफ़ा बातचीत में
पूछ ही लेता हूँ कि
क्या तुम्हे भी कभी
मेरी याद आती है  ?

और तभी उतारता  हूँ आँखों पर से चश्मा
निकलता हूँ जेब से रुमाल
और हँस पड़ता हूँ  याद करके
तुम्हारा दिया हुआ नाम 'रुअक्कड़'
तुम्हें रोना पसंद नहीं 
मैं कुछ भी तो तुम्हारी पसंद का नहीं कर पाता

यकीन करो मैं हँसता हूँ 
कभी कभी
जब मैं बहुत बेबस होता हूँ तब !

 - आनंद 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

इन दिनों

वह कहती है कि
तुम उस भूतनी को भूल क्यों नहीं जाते
हा हा हा हा हा हा हा
और कहती है कि
तुम्हारा अक्षर - अक्षर उसे पुकारता है आज भी
मुझे हज़ार गलियां देती है
और तुम्हें लाख,
वह यह भी कहती है कि वो चुड़ैल तुम्हारा पीछा ही नहीं छोड़ती
तुम्हारी एक एक साँस में झलकती है वो

सच बताऊँ ?
इन दिनों
अच्छा लगता है जब कोई देखता है
मुझमे तुमको
और उसके बाद
बुरा भला कहता है तुमको,

इन दिनों
जाने कैसा हो गया हूँ मैं

- आनंद 

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

बिन लड़े क्यों मर रहा है आदमी

क्या तमाशे कर रहा है आदमी
अब नज़र से गिर रहा है आदमी 

बिन लड़े जीना अगर संभव नहीं
बिन लड़े क्यों मर रहा है आदमी 

हर जगह से हारकर, सारे सितम 
औरतों पर कर रहा है आदमी 

देश की नदियाँ सुखाकर, फ़ख्र से 
बोतलों  को  भर रहा है आदमी
  
हाथ में लेकर खिलौने एटमी  
आदमी से डर रहा है आदमी 

योग, पूजा, ध्यान नाटक है, अगर  
भूख से ही लड़ रहा है आदमी 

है पड़ी स्विच-ऑफ दुनिया जेब में 
ये तरक्की कर रहा है आदमी  

- आनंद