गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कीमतों का मुद्दआ भर रह गया...

ज़ख्म है मरहम है या तलवार है,
आदमी हर हाल में लाचार है।

दे रहा है अमन का पैगाम वो,
जिसकी नज़रों में तमाशा प्यार है।

कीमतों का मुद्दआ भर रह गया,
हर कोई बिकने को अब तैयार है।

भाई इसको तो तरक्की न कहो,
मुफ़लिसों के पेट पर यह वार है।

पहले आयी गाँव में पक्की सड़क,
धीरे-धीरे  आ  गयी रफ़्तार  है ।

अपनी-अपनी चोट सबने सेंक ली,
क्या यही हालात का उपचार है  ?

क्या शराफ़त काम आएगी भला,
सामने वाला अगर मक्कार है ।

आपकी नाज़ो-अदा थी जो ग़ज़ल,
आजकल 'आनंद' का हथियार है ।

- आनंद 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

आदमी मैं आम हूँ




वक़्त का ईनाम हूँ या वक़्त पर इल्ज़ाम हूँ,
आप कुछ भी सोचिये पर आदमी मैं आम हूँ

कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने,
शख्सियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ़ कोई नाम हूँ

बिन पते का ख़त लिखा है जिंदगी ने शौक़ से,
जो कहीं पहुंचा नहीं, मैं बस वही पैगाम हूँ

कारवाँ को छोड़कर जाने किधर को चल पड़ा
राह हूँ, राही हूँ या फिर मंजिलों की शाम हूँ

है तेरा अहसास जबतक, जिंदगी का गीत हूँ
बिन तेरे, तनहाइयों का अनसुना कोहराम हूँ

दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द  का 'आनंद' हूँ  मैं,  प्यार  का अंजाम हूँ

- आनंद 

रविवार, 20 जनवरी 2013

अब न यारी रही न यार रहा ...

न तमाशा रहा न प्यार रहा
अब न यारी रही न यार रहा

मेरे अशआर भला क्या कहते   
न शिकायत न ऐतबार रहा

मैंने उससे भी सजाएं पायीं
जो ज़माने का गुनहगार रहा

जिक्र फ़ुर्सत का यूँ किया उसने
सारे हफ़्ते ही इत्तवार रहा

खुशबुएँ बेंचने लगे हैं गुल
इस दफ़े अच्छा कारोबार रहा

आज से मैं भी तमाशाई हूँ
आजतक मुद्दई शुमार रहा

ये बुलंदी छुई सियासत ने 
चोर के हाथ कोषागार रहा

दर्द का सब हिसाब चुकता है
सिर्फ़ 'आनंद' का उधार रहा

- आनंद 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

जब कभी अपने पास आता हूँ



मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

कोई मंज़र हसीं नही होता
अब कहीं भी यकीं नही होता
याद भी साथ छोड़ जाती है
आँख से बूँद टपक जाती है
डूब जाने का डर तो है लेकिन
गहरे सागर में उतर जाता हूँ

चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

शब्द का शोर नहीं भाता है
अर्थ  भी ठौर नहीं पाता है
रात इतना सुकून देती है
आजकल भोर नहीं भाता है
ये अंधेरे ही मीत लगते हैं
अब इन्हें ही गले लगाता हूँ


चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ


हर किसी की जुदा है राह यहाँ
मांगता  रह गया पनाह यहाँ
आह हासिल है चाह की, जाना
जान ली, आरज़ू गुनाह यहाँ
आह और चाह साथ ले जाकर
आज  जमुना में छोड़ आता हूँ


मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

- आनंद




शनिवार, 5 जनवरी 2013

सुनो स्त्रियों - २


मैं करता रहा
तुमसे प्रेम
लिखता रहा तुम्हारी सुंदरता के गीत
डूबा रहा मिलन के आमोद में
या फिर
जलता रहा विरह में
पर सुनो !
मैंने यह क्यों नहीं देखा कि
तुम्हें कहीं भी
बराबरी का हक़ हासिल नहीं है
एक डर तुम्हारे सपनों में भी होता है
बात बात में अम्बर पर बस्तियां बनाने वाला मैं
नहीं कर सका जमीन का एक टुकड़ा
तुम्हारे रहने लायक
जहाँ रह सको तुम
अपनी मर्ज़ी से बिना किसी का मुँह ताके
और कह सको प्रेम को प्रेम
बिना किसी बहाने के,
तब शायद तुम्हे भी
यह धरती छोड़
चाँद सितारों के ख़याल से खुद को न बहलाना पड़ता ।

- आनंद