बुधवार, 29 अगस्त 2012

बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे धीरे



दिले पुरखूं  कि सदा छा  गयी धीरे धीरे
रूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।

मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में  घटा  छा  गयी  धीरे धीरे  ।

जश्ने आज़ादी मनाऊं मैं कौन मुंह लेकर
बाड़ ही खेत को जब  खा गयी धीरे धीरे ।

जो इंकलाब से कम बात नहीं करता था
रास सत्ता  उसे भी आ गयी धीरे धीरे ।

दोस्त मेरे सभी  नासेह बन गए जबसे
बात रंगनी मुझे भी आ  गयी धीरे धीरे ।

गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की  वहाँ  भी आ गयी  धीरे  धीरे  ।

लाख 'आनंद' को समझाया, बात न मानी
खुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे !

शब्दार्थ :-
दिले पुरखूं  = ज़ख्मी दिल (खून से भरा हुआ दिल)
सदा  = आवाज़
सोज़े अलम = दर्द की आग़
नासेह  =  उपदेशक

- आनंद द्विवेदी
१४-०८-२०१२






मंगलवार, 28 अगस्त 2012

हाइकु -१

हाइकु 
एक संक्षिप परिचय :- हाइकु मूलतः जापान की काव्य विधा है जिसमे आज कई देशों में कवितायें लिखी जा रही हैं | इसमें  सत्रह अक्षरों में कविता लिखनी होती है | पाँच अक्षर ऊपर की पंक्ति में .फिर सात अक्षर मध्य की पंक्ति में फिर पाँच अक्षर नीचे की पंक्ति में | पाई, मात्रा और आधे शब्दों की गणना नहीं होती है !
उदाहरण के लिए एक हाइकु  देखिये
        कृपानिधान [५]
    भ्रष्टाचारियों पे भी [७]
        सर संधान   [५]
तो इस कला की मेरी सबसे पहिली कुछ हाइकु माधव को समर्पित !
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कान्हा रे कान्हा 
जब मैं बुलाऊं तो 
तुम आ जाना 
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द्वारिकाधीश 
आपके चरणों में 
है झुका शीश 
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हे रणछोर 
खींच ले दुनिया से
अपनी ओर 
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मन मृदंग
यों बाजे, बजती है 
जल तरंग
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राधा री राधा
श्याम तो तुम्हारा है
अब क्या बाधा
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माधव मेरे
माया में न भरमा
हम हैं तेरे
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जीवन की डोर
तेरे ही  हाँथों  में  है
अब ना छोड़ 
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कृपानिधान
भ्रष्टाचारियों पे भी
सर संधान
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तुझसे आस 
अंदर भी कंस हैं 
कर दे नाश 
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- आनंद
२७-०८-२०१२  

सोमवार, 27 अगस्त 2012

अवधी में कुछ दोहे !

पहली बार अपनी अवधी में कुछ लिखा है  बहुत अच्छा लग रहा है


कब तक ना बोली भला, करी न सीधी बात
लौकी कुम्हड़ा तक घुसे  अम्बानी के तात

सिलबट्टा म्यूजिम चला सुनि मिक्सी का शोर
बहुरेऊ के  हाथ मा,    रहा  न  तिनुकौ जोर

बिरवा बालौ  ना  बचे  नहीं  बचे   खलिहान
ना जानै  को  लै  लिहिस,  गौरैया  कै  जान

पानिऊ सरकारी भवा, होइ जाओ हुशियार
कुआँ बाउरी  अब  नहीं,   बोतल  है  तैयार

लंन्घन कईके सोइगा, फिरि से बुधुआ आजु
सरकारी गोदाम मा,  'टरकन'  सरै   अनाजु

मँहगाई  का  देखिकै,   लागि   करेजे  आगि
जियत बनै न मरि सकी, कइसी  जाई  भागि

- आनंद
२७-०८-२०१२ 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

एक रूमानी गाँव की कथा



चिलियानौला 

वैसे तो वो एक गाँव है एक आम पहाड़ी गाँव
वैसे ही एक के ऊपर एक बने घर
वैसे ही घुमावदार मगर साफ सुथरे रास्ते, उतनी ही साफ़ सुथरी हवा और सामने हजरों फुट गहरी खायी के पार हिमालय की लुकाछिपी खेलती हुई धवल चोटियाँ
तीन रंग का यह गाँव
सुबह सिंदूरी
दोपहर में हरा
और रात में चम्पयी हो उठता है
पर एक बात यहाँ रहने वालों को भी नहीं मालुम की धरती पर यही एकमात्र वो जगह है जहाँ
सच में धरती और आकाश एक दूसरे से मिलते हैं ।
आकाश चूम  लेता है धरती को और धरती ....डाल  देती है बाहें आसमान के गले में , और अगर आप उस समय वहां हैं तो बड़े आराम से एक पाँव उठाकर चाँद पर चढ़ सकते हैं बिलकुल वैसे ही जैसे कोई नीम के पेड़ पर पड़े हुए झूले पर चढ़ता है ।
चाँद पर होने के भी अपने सुख हैं
एक तो वहां बिना वजह के भगवान नहीं होते,
दुसरे वहां किसी वजह से भी शब्द नहीं होते ..............और तीसरा वहां केवल एक रंग है चाँदी का , शुभ्र , शांत और पूर्ण ।
वहां से नीचे घाटी में देखने पर आराम से देख सकते हैं धरती की धुंधली सी परछाई
चाँद से जरा ही आगे एक मोड़ है, जहाँ से दाहिने तरफ वाला रास्ता नीलम सी हरी भरी वादियों में होता हुआ आपको वापस उसी गाँव ले आता है,
जबकि बाएं तरफ वाली पगडण्डी चीड़ और देवदार के अनुशासित सिपाहियों के बीच से होते हुए आपको वहां पहुंचा देती है जहाँ जाने की चाह हर एक में जन्म से ही दबी रहती है ....
और अचानक आप पाते हैं कि
पांडवों के बाद
आप पहले ऐसे प्राणी हैं जिन्हें यह गौरव हासिल हुआ है ।

उस गाँव के बारे में एक और बेहद दिलचस्प सच ये है कि वहाँ से जो लौटता है वो एकदम वही नहीं होता जो वहां जाता है
वहाँ जाने और लौटने के बीच में
चुपके से
कई प्रकाश वर्ष खिसक जाते हैं
और हमें
ये बात बहुत बाद में पता चलती है ।




सोमवार, 20 अगस्त 2012

जब भी मिलता है, बहारों से मिला देता है





हाल दिल का, वो इशारों से बता देता है,
जब भी मिलता है, बहारों से मिला देता है !

किस नज़र देखता है हाय  देखने भर से ,
मेरी नज़रों को नजारों से मिला देता है !          

जब भी आगोश में लेता है तो दरिया बनकर,
प्यास को, गंगा की धारों से मिला देता है  !

जब कभी मुझको वो पाता है जरा भी तनहा,
अपनी यादों के,   सहारों से मिला देता है  !

कितना भी तेज़  हो तूफान वो मांझी बनकर ,
मेरी कश्ती को,   किनारों से मिला देता है  !

हाँ ये सच है की खुदा, खुद नहीं करता कुछ भी,
बस वो 'आनंद' को,  यारों से मिला देता है    !!

           -आनंद द्विवेदी  २३-०५-२०११