दिले पुरखूं कि सदा छा गयी धीरे धीरे
रूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।
मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में घटा छा गयी धीरे धीरे ।
जश्ने आज़ादी मनाऊं मैं कौन मुंह लेकर
बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे धीरे ।
जो इंकलाब से कम बात नहीं करता था
रास सत्ता उसे भी आ गयी धीरे धीरे ।
दोस्त मेरे सभी नासेह बन गए जबसे
बात रंगनी मुझे भी आ गयी धीरे धीरे ।
गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की वहाँ भी आ गयी धीरे धीरे ।
लाख 'आनंद' को समझाया, बात न मानी
खुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे !
शब्दार्थ :-
दिले पुरखूं = ज़ख्मी दिल (खून से भरा हुआ दिल)
सदा = आवाज़
सोज़े अलम = दर्द की आग़
नासेह = उपदेशक
- आनंद द्विवेदी
१४-०८-२०१२
वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंमहफ़िल में हम सजे बैठे थे ,पूरे साजो सामान के संग
तभी मौत का फरमान आ गया ,जो था अब तक बाकि ||
(एक छोटी सी कोशिश मेरी भी ):)))
गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
जवाब देंहटाएंये तरक्की भी वहाँ आ गयी धीरे धीरे ।
Badi sundar rachana hai!
दिले पुरखूं कि सदा छा गयी धीरे धीरे
जवाब देंहटाएंरूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।
मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में घटा छा गयी धीरे धीरे ।
गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की भी वहाँ आ गयी धीरे धीरे ।सुन्दर !!
मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
जवाब देंहटाएंमेरी आँखों में घटा छा गयी धीरे धीरे ..
सुभान अल्ला ... क्या गज़ब का शेर कहा है ... बहुत ही खूबसूरत अदायगी ...
लाख 'आनंद' को समझाया, बात न मानी
जवाब देंहटाएंखुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे !
आपकी ग़ज़लों के अंतिम शेर मुझे सबसे अच्छे लगते हैं :))))
--
वाह ............हर शेर लाजबाव !
जवाब देंहटाएं