रविवार, 12 अक्टूबर 2014

जिन निगाहों में सिर्फ़...

जिन निगाहों में सिर्फ़ आंसू थे उन निगाहों को ख़्वाब भेजे हैं
बाद मुद्दत के किसी ने मुझको, सुर्ख ताज़े गुलाब भेजे हैं

इश्क़ के, वस्ल के, जुदाई के, जिंदगी के, वफ़ा के, रिश्तों के
जाने कितने सवाल थे मन में, उसने सबके जबाब  भेजे है

रंग भेजे हैं रूह की खातिर, घूप भेजी है ज़िस्म ढकने को
छीन वीरानियों को, बदले में, उम्र को फिर शबाब भेजे हैं

कुछ भरोसे निबाह के लायक, मुतमइन ज़िंदगी को भेजे हैं
मेरी तन्हाइयों के मद्देनज़र, अपने हमशक्ल ख़्वाब भेजे हैं

एक पैगाम मिला कासिद से, ग़म की राहों पे पाँव मत रखना
सिर्फ़ 'आनंद' में मिलेगा वो,  क्या गज़ब इंतिखाब भेजे  हैं  !

- आनंद







शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

जीव और आत्मा

मुझे अच्छे से नहीं पता कि
सीने के अन्दर ठीक किस जगह होता है कलेजा
कहाँ होते हैं  प्राण
और कहाँ होती है आत्मा
पर मुझे ठीक से पता है
कैसे स्पर्श करती है तुम्हारी आत्मा
मुझे ठीक उसी जगह
जहाँ सबसे ज्यादा सक्रिय होता है जीवन
और जीवन का कारोबार
ध्वनियाँ हो सकती हैं मन का खेल
पर स्पर्श ... उसे तो पहचानता हूँ मैं आदिकाल से
जैसे शरीर पहचानता है ऊष्मा को
भूमि... जल को
भूख ...अन्न को
और प्राण ....तुमको

मत कहना कभी
मैंने तुम्हें देखा नहीं
छुआ नहीं
जाना नहीं
मैंने जिया है तुमको अहिर्निशि
अपने केंद्र में अविछिन्न
जैसे जीव और आत्मा
जिसमें मैं जीव हूँ
और तुम इसकी आत्मा
जीवन इसी संयोग का नाम है ...!

- आनंद 

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

आज का सपना

न मैं तुम्हारे लायक हूँ न प्रेम के
कृपालु प्रभु की कृपा ....  कि 
मुझ जैसे मूढ़ को 
जगत की  इस सबसे निराली खुशबू से 
सींच दिया , कर दिया सराबोर 
दुआओं लिए उठी मेरी हथेलियों में 
डाल दिया दुनिया का सबसे अनोखा फूल 
अब न लायक होना कोई मायने रखता है 
ना ही नालायक होना 
योग्य अयोग्य की सीमा के बाद 
मैंने पाया है तुमको ....  बार बार खोकर   
हर बार 
और अधिक तपकर 
और अधिक भरोसे के साथ … 

एक ओर मन है अनंत .... निःसीम 
दूजी ओर शरीर है 
अपनी व्याधियों उपाधियों में उलझा हुआ 
छकाया अपनी सामर्थ्य भर दोनों ने 
बचाया हर बार.… 
कभी तुमने ....  कभी तुम्हारे होने के अहसास ने 

एक दिन शरीर जल गया 
मन मर गया 
बची सिर्फ रूह 
जो घुल गयी तुम्हारी रूह में 
तुम्हारी रूह ने भी तड़पकर मिल जाने दिया 
खुद को 
मेरी रूह में

इस तरह हम मिले  
और पूरा हुआ
हमारा एक जन्म ... !

- आनंद 

सोमवार, 22 सितंबर 2014

बीरबल की खिचड़ी

बदले तो हैं वो
इन दिनों रखते हैं ख़ास ख़याल
जैसे कोई अनुभवी चिकत्सक पकड़ता है
हौले से मरीज़ की नब्ज़ 
पल भर में भांप लेता है उसका स्वास्थ्य 
आश्वस्त हो पूछता है हालचाल 
देता है जरुरी हिदायतें 
और चला जाता है उधर ही जिधर से आया था 
मरीज़ फिर करने लगता है इंतज़ार 
एक और कल का 

प्रेम ...
इंतज़ार की आंच पर पक रही  
अनेक काल्पनिक स्वादों वाली   
बीरबल की खिचड़ी है !

- आनंद 




बुधवार, 17 सितंबर 2014

साहस


अब जबकि एक जीवित मशीन में भरी है
सारी की सारी दुनिया
कुछ भी तो दूर नहीं है पहुँच से
विश्वव्यापी होने के सपनों को जेब में रखे
मैं अक्सर उसमें देख लेता हूँ आपको
तस्वीरों में अक्सर ढूँढता रहता हूँ
न जाने क्या क्या
दुनिया भर को प्रेम लुटाती आपकी बातें
मुस्कराहटें
सब सच लगती हैं मुझे
सच कहूँ तो मुझे आपकी मशीन वाली दुनिया
ज्यादा अपनी सी लगती है
बनिस्बत मेरी हक़ीक़त वाली दुनिया से
जिसमें
जीवन है
पत्थर की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा
निष्प्राण … कुम्हलाया
मैं इसे "भगवान की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा"
भी कह सकता था, …।
ये संकेत है आपके लिए
कि मैं अब उतना उदार नहीं रहा
या हो गया हूँ इतना साहसी कि कह सकूँ
पत्थर को पत्थर
दुःख को दुःख
खिलवाड़ को खिलवाड़
और प्रेम को प्रेम  !

- आनंद