बुधवार, 22 अप्रैल 2015

"जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू"

अब ये 'सत्य सनेहू' मापने का कौन सा पैमाना अप्लाई किया जाए
हे युवा प्रेमियों !
इस शास्त्रीय झूठ को झूठा  क्यों नहीं साबित किया अभी तक आप लोगों ने
या तो इस सत्य सनेहू  की माप तौल को
कोई गैज़ेट  कोई एप्लीकेशन  ईज़ाद करो
या फिर डंके की चोट पर कह दो कि झूठ है यह बात
जितना ही सत्य सनेहू  होगा
उतना ही मिलने में संदेहू होगा !

नोट : हर बात कविता नहीं होती  तजुर्बों का भी जीवन में अहम् किरदार है

  

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

गोधूलि होने को हुई है...


हृदय तड़पा
वेदना के वेग से
ये हृदय तड़पा
अश्रु टपका
रेत में
फिर अश्रु टपका

थरथरायी लौ
हथेली ने बचाया
जल रही है,
लड़खड़ाई साँस
फिर संभली जतन से
चल रही है,

पेड़ से पत्ता गिरा
ये दृश्य है
अलगाव है
या मृत्यु है ...
बस समय जाने
फड़फड़ा कर डाल से
पंक्षी उड़ा...
संघर्ष है
या मुक्ति है ...
बस समय जाने

इस गहन एकान्त में
फिर जोर से
क्यों हृदय धड़का
हृदय तड़पा................

बादलों के मध्य
नारंगी दिवाकर
कर रहा है चित्रकारी
अस्त होगा,
मन परिक्रमा कर रहा है अनवरत
ब्रह्माण्ड की,
अब पस्त होगा

आ sss ...
आ चलें
गोधूलि होने को हुई है
लौट भी चल,
हर घड़ी हर मोड़ पर
आज भी
दुनिया नई है
ठहर दो पल

हाय ये चलना ठहरना
खेल है ऐसे
कि जैसे
काल का ...
बस  अंग फड़का

हृदय तड़पा
वेदना के वेग से
ये हृदय तड़पा
अश्रु टपका
रेत में
फिर अश्रु टपका

- आनंद




गुरुवार, 12 मार्च 2015

छानी-छप्पर फूस- मड़ैया बाकी हैं

छानी-छप्पर फूस- मड़ैया बाकी हैं
कहीं कहीं पर ताल तलैया बाकी हैं

भाई, मेरे गाँव गली में अब भी कुछ
बिरहा, कजरी, फाग गवैया बाकी हैं

कुछ तो बड़े मतलबी चतुर सयाने हैं
उनमें भी कुछ नेह निभैया बाकी हैं

टूट रहे विश्वासों की इस धरती पर
मरे जिए कुछ काँध देवैया बाकी हैं

कभी कभी सर पर छत जैसे लगते हैं
काकी-काका, भौजी- भैया बाकी हैं

- आनंद









शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला


कई मित्र अक्सर ग़ज़ल संग्रह 'फ़ुर्सत में आज' के बारे में पूछ बैठते हैं ... मुझे भी इसी तरह गाहे-बगाहे अपनी किताब की याद आ जाती है, बहरहाल उन्हीं मित्रों के लिए सूचना कि पुस्तक 'दुनिया किताब मेले में "बोधि प्रकाशन" के स्टाल पर उपलब्ध है !

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

जरिबो पावक मांहि

प्रेमी कहता है
एक आस टूटी
ज्ञानी कहता है
एक बंधन टूटा
ईश्वर खड़ा हो गया है आकर ठीक उस जगह
कल तक तुम जहाँ खड़ी थी
चीड़ के पेड़ की तरह,

प्रेमी कहता है
खो गया सब कुछ
ईश्वर केवल रिक्त स्थान की पूर्ति का भ्रम है
ज्ञानी कहता है
मिल गया है वह सबकुछ
जिसकी पूर्ति भ्रमों से रिक्त होकर ही होती है

मेरे भीतर से एक नन्हा शिशु निकलकर
पकड़ लेता है ऊँगली
तेरे उसी प्रेमी की
जिसने हमेशा तुझे ही चुना
ईश्वर के मुकाबले

मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं
इसीलिये बढ़ता हूँ
ईश्वर की तरफ
आखिर मुझे और भी बहुत कुछ देखना है
जीवन से लेकर मृत्यु तक

ईश्वर बहुत अच्छा व्यवस्थापक है
व्यवस्था में ही सबका हित है
जान है तो जहान है
फिर भले ही ये जान और ये जहान
दोनों दो कौड़ी के हों

कमजोर लोग
नहीं कर सकते ...कभी
प्रेम
प्रेम आक्सीजन की जगह भरता है साँसों में
साहस
और कार्बन डाई आक्साइड की जगह
बाहर छोड़ता है
विद्रोह !

अंततः
ज्ञानी सुख को प्राप्त होता है
और प्रेमी
दाह  को !

- आनंद