बुधवार, 14 जनवरी 2015

इस दुनिया को रहने लायक कर मौला

काँप रहे हैं बच्चे थर थर थर मौला
इस दुनिया को रहने लायक कर मौला

जो ताक़त के पलड़े में कुछ हलके हैं
उनको भी करने दे गुज़र-बसर मौला

पहले मज़हब में बाँटा इंसानों को
देख बैठकर अब खूनी मंज़र मौला

आधी आबादी दुश्मन है आधी की
थोड़ा इन मर्दों को काबू कर मौला

ना तुझसे डरते न तेरी दुनिया से
तू खुद ही अपने बंदों से डर मौला

ताकत की सत्ता का नियम बना जबसे
उस दिन को मनहूस मुकर्रर कर मौला

ऐसा ही इंसान रचा था क्या तूने  ?
ऊपर मीठा, अंदर भरा ज़हर मौला

जब जीवन ठगविद्या हो 'आनंद' नहीं
मुझको फिर छोटे बच्चे सा कर मौला

- आनंद 

रविवार, 11 जनवरी 2015

कुछ उनसे कुछ हमसे गिरकर चूर हुए

कुछ उनसे कुछ हमसे गिरकर चूर हुए
धीरे धीरे ख्व़ाब सभी काफ़ूर हुए

कहते हैं, कुछ रिश्ते ऊपर बनते हैं
नीचे आकर वो भी नामंजूर हुए

अंदर गहराई में ही कुछ हों तो हों
बाहर के तो रंग सभी बे-नूर हुए

कुछ उनका ग़म और करम कुछ यारों के
आहिस्ता- आहिस्ता हम मशहूर हुए

जीवन 'पाना' नहीं, निभाना है बंधू
कितना पाकर भी तो सबसे दूर हुए

वक़्त रहे 'आनंद' समझ ले भाई ये
जिनसे थीं उम्मीदें वो मजबूर हुए

हम  तो जैसे हैं बस उठकर चल देंगे
अब क्या अक़बर हुए और मगरूर हुए

- आनंद

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

खुदगर्ज़ मैं

इन दिनों बाहर बहुत कोलाहल है 
कुछ टूट रहा है, किसी बहुमंजिली इमारत जैसा
ईमारत कितनी ही पुरानी क्यों न हो
उसका टूटना, दुखी करता है
उसे... जो उसके ईंट दर ईंट बनने का गवाह हो

इन दिनों अन्दर बहुत सन्नाटा है
अकेले शरीर और अकेली आत्मा के बीच
घनघोर गृहयुद्ध के बाद शांति समझौता हो चुका है
दोनों ओर से हताहत इच्छाओं की गिनती और अंतिम क्रियाओं का दौर जारी है
विजित का निर्णय अभी जल्दबाज़ी होगी

एक तीसरी दुनिया भी है
जो कभी कहीं न होकर भी
हर जगह होती है
असल में सबसे ज्यादा नुकसान उसे ही हुआ है
जैसे बिना भरोसे के हो गए हों
सपने … और अपने !

इन सबके बीच एक मैं हूँ
एकदम खुदगर्ज़
हर हाल में खुद को बचा ले जाने की चालाकियों से भरा हुआ
एकदम उस ब्रह्म जैसा
जिसने यह सुनिश्चित किया हुआ है
कि हर बार प्रलय के बावजूद
बचा रहे उसका अस्तित्व …!

- आनंद


 

रविवार, 12 अक्टूबर 2014

जिन निगाहों में सिर्फ़...

जिन निगाहों में सिर्फ़ आंसू थे उन निगाहों को ख़्वाब भेजे हैं
बाद मुद्दत के किसी ने मुझको, सुर्ख ताज़े गुलाब भेजे हैं

इश्क़ के, वस्ल के, जुदाई के, जिंदगी के, वफ़ा के, रिश्तों के
जाने कितने सवाल थे मन में, उसने सबके जबाब  भेजे है

रंग भेजे हैं रूह की खातिर, घूप भेजी है ज़िस्म ढकने को
छीन वीरानियों को, बदले में, उम्र को फिर शबाब भेजे हैं

कुछ भरोसे निबाह के लायक, मुतमइन ज़िंदगी को भेजे हैं
मेरी तन्हाइयों के मद्देनज़र, अपने हमशक्ल ख़्वाब भेजे हैं

एक पैगाम मिला कासिद से, ग़म की राहों पे पाँव मत रखना
सिर्फ़ 'आनंद' में मिलेगा वो,  क्या गज़ब इंतिखाब भेजे  हैं  !

- आनंद







शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

जीव और आत्मा

मुझे अच्छे से नहीं पता कि
सीने के अन्दर ठीक किस जगह होता है कलेजा
कहाँ होते हैं  प्राण
और कहाँ होती है आत्मा
पर मुझे ठीक से पता है
कैसे स्पर्श करती है तुम्हारी आत्मा
मुझे ठीक उसी जगह
जहाँ सबसे ज्यादा सक्रिय होता है जीवन
और जीवन का कारोबार
ध्वनियाँ हो सकती हैं मन का खेल
पर स्पर्श ... उसे तो पहचानता हूँ मैं आदिकाल से
जैसे शरीर पहचानता है ऊष्मा को
भूमि... जल को
भूख ...अन्न को
और प्राण ....तुमको

मत कहना कभी
मैंने तुम्हें देखा नहीं
छुआ नहीं
जाना नहीं
मैंने जिया है तुमको अहिर्निशि
अपने केंद्र में अविछिन्न
जैसे जीव और आत्मा
जिसमें मैं जीव हूँ
और तुम इसकी आत्मा
जीवन इसी संयोग का नाम है ...!

- आनंद