बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

तेरी गंध !


कौन समझेगा इन मौसमों को
और समझने की कोशिश भी क्यों
पल पल बदलती कायनात
अहोभाव से भरा हुआ वजूद
प्रेम से भरा हुआ दिल
रजनीगंधा सी महकती हवाएँ
संगीत सी बजती ध्वनियाँ
उर्जाओं से लयबद्ध कदमताल
हर तरफ बेवज़ह आतिशबाज़ियाँ
क्या है ये सब
एक तेरी आहट में इतनी शक्ति ?
दुनिया हर कदम पर चकित करती है
और चकित करती है
प्रेम की अपार शक्ति

ईश्वर नगाड़े बजाता है कई बार
बहरे बने हम
मैं मैं के आगे नहीं सुनते कुछ भी,
सुनो अनाड़ी प्रियतम !
(अनाड़ी इसलिए कि जितना लेते हो उससे ज्यादा दे जाते हो)
ले जाओ मुझसे जो भी है मेरे आसपास
रखना चाहता हूँ हर पल खाली यह घट मैं
अपनी कामनाओं से
ताकि तुम्हारे अहसास की सुगंध
बे-रोकटोक आती और जाती रहे
और जब मिट्टी का यह घट फूटे
तो न निकले इससे मेरी इच्छाओं का मलबा
बल्कि बिखरे इससे तुम्हारी सुगंध
तुम्हारी ही सुरभि !

- आनंद



शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

ऐसा क्यों होता है


ठीक उसी समय
क्यों होती हैं ढेर सारी बातें तुम से
जब, कहने को कुछ नही होता
एक शब्द भी नहीं,
मौन इतना मुखर क्यों होता है,

ठीक उसी समय
क्यों होते हो तुम इतने पास
जब, दुनिया में
खुद से ज्यादा अकेला कोई नहीं होता
तन्हाई इतनी अपनी क्यों होती है

ठीक उसी समय
क्यों हो जाते तुम इतना बेगाने
जब, मन बुनने लगता है
सपनों की एक चटाई
सपने इतने बैरी क्यों होते हैं

ठीक उसी समय
आँख क्यों छलक जाती है
जब, पास से गुजरने वाला होता है
खुशियों का कोई कारवाँ
आँसू इतने ईर्ष्यालु क्यों होते हैं

ठीक उसी समय
क्यों पता चलती है अपनी कमजोरी
जब, हिम्मत करो जरा मजबूत होने की
खुद को धोखा देना
इतना आसान क्योँ होता है

- आनंद


बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

चार बूँद आँसू

(एक)

सोचता हूँ  ओढ़ लूं
किसी की हर चुप्पी
हर इनकार
दूरी की हर कोशिश
और  हो जाऊँ
उसी की तरह
एकदम सुरक्षित

प्रेम  …  एक जोखिम तो है ही !

(दो)

एक तरफ जगत की सम्पति
और जगदीश स्वयं
दूसरी  तरफ़ केवल तुलसी की एक पत्ती,
तुम्हारा नाम
वही तुलसीदल है,
मैं अपने पलड़े में जो भी रख सकता था
रखकर देख लिया
जैसे ही तुम्हारा नाम आता है
तृण हो जाता है
ये जगत
और मेरा

मैं !

(तीन)

गर्दन दुखने लगती है
आकाश को निहारते ... मगर
नहीं टूटते तारे अब
कोई और जतन बताओ
कि एक आखिरी मुराद माँगनी है मुझे 

टूटने वाली चीजें भी
कुछ न कुछ दे ही जाती हैं 

मसलन 
एक सबक !

(चार)


निपट अकेलेपन में भी 
कोई न कोई
साथ होता है,
इंसान के बस में न साथ है
न तनहाई,
बेबस इंसानों से खेलना
न जाने किसका शगल है
जिसे कुछ लोग
लीला कहते हैं !

- आनंद
   

शनिवार, 28 सितंबर 2013

मिट्टी

उसे मिट्टी में ही खेलने दो
हाय राम! तेरा लल्ला तो मिट्टी खाता है
इस मिट्टी की खुशबू ही अलग है
पूरा मिट्टी का माधौ है
इस मिट्टी के लिए भी कुछ सोच
मिट्टी को खून से मत रंग
जाने किस मिट्टी का बना है
मिट्टी का असर जाता कहाँ है

अब क्या बचा है केवल मिट्टी
कब तक इंतजार करोगे मिट्टी खराब हो जाएगी
समय से आ जाते तो मिट्टी मिल जाती
देर कर दी आने में, मिट्टी उठ गयी
मिट्टी है जलने में समय तो लगेगा ही
मिट्टी से लौटकर घर मत आना
मिट्टी में कौन कौन शामिल था
चलो मिट्टी सुधर गयी

मिट्टी मिट्टी में मिल गयी !

- आनंद 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

पाने की इच्छा

सारा दिन
बार बार
स्मृतियों को
उलट पुलट कर देखता हूँ
हर बार पाता हूँ कि
और और उलझ गयी है मेरी शिनाख्त
रात भये
मंझे से कटी पतंग की तरह गिरता हूँ
बिस्तर पर
जहाँ नींद उलझा देती है
पुरानी चरखी से उतरा हुआ सारा धागा

तुम आगे बढ़ गये हो
सारा कुछ उलझा हुआ छोड़कर
अपनी धवल राहों में
मैं तटस्थ हो गया हूँ समय से
और ढूँढ रहा हूँ,
तुमको ..न...न
बस धागे का एक सिरा
इस बार
बिना टूटे
ये शायद सुलझेगा नहीं !

बड़ी सकारात्मकता से भरी है यह दुनिया
पहाड़ों पर कचरा फेंकती है
और नदियों में मैला
हवा में जहर घोलती है
और दिलों में उदासी
अब तो किसी को खुश देखो तो भी डर लगता है
न जाने इस मुस्कान की कीमत
कितने आँसुओं ने चुकाया हो
आख़िर हर क़दम पर यही तो सिखाया जाता है हमें
प्रेम सिर्फ़ मिटने का नाम है
पाने की इच्छा 'पाप' है

हम ठोकर मारते हैं
इस
अच्छा होने की चाहत को
और ठाठ से हैं
अपने बे शिनाख्त वजूद में ही
तुम्हें पाने की इच्छा (बेशक पाप) के साथ !

-आनंद