गुरुवार, 22 अगस्त 2013

केवल हम ही नहीं अकेले

केवल हम ही नहीं अकेले तूफां से दो चार हुए
डूबे लेकिन हम ही तनहा, बाकी बेड़े पार हुए

जीवन भर खुशियों ने हमसे आँख मिचौली खेली है
ऐसे नहीं तजुर्बे अपने इतने लज्ज़तदार हुए

कैसे बच्चों को समझाऊँ, रहने दें अलमारी में
लाइव ख़बरों के मौसम में, हम रद्दी अखबार हुए

किसको है परवाह दिलों की कौन किसी की सुनता है
दिलवालों के हाथों ज्यादा खुलकर दिल पर वार हुए

मेरे हिस्से का जितना था उतना मैंने भी पाया
जैसे कोटे वाली शक्कर मिलती है त्यौहार हुए

ये तनहाई का पौधा है तनहाई में पनपेगा
है 'आनंद' कहाँ शहरों में सहरा भी बाज़ार हुए

 - आनंद 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

शब्द और अर्थ


देख रहा हूँ बैठा बैठा कुछ शब्दों को
जो हमने बोले थे तुमसे
आज खड़े हैं यहीं सामने
उन शब्दों को साथ लिए हैं
जो तुमने बोले थे मुझसे
यह कह-कह कर
'शब्दों में मत अटको जाना'...
'डूबो अर्थों में गहरे तक'
इस तरह शब्दों ने ही डुबो दिया मुझे
तुम अर्थों के साथ
उस पार खड़े मंद मंद मुस्करा रहे थे
और मैंने भी सीखा
प्रेम मुक्त करता है
वह तो अज्ञान है जो निभाने की कोशिश करता है
मोह..... नहीं नहीं आसक्ति
वह भला प्रेम कैसे हो सकता है ...

सूख गयी वो नदी
जहाँ डूबना था मुझे
मैंने भी मुस्कराते हुए पार कर लिया उसे
एक बात कभी कभी याद आ जाती है
"खुसरो दरिया प्रेम का"
मगर अगले ही पल एक बात और याद आती है
"समरथ को नहिं दोष गुसाईं"

खाली समय में मैं भी
अब और लोगों को डूबने की सीख देता हूँ !

- आनंद



सोमवार, 12 अगस्त 2013

निगोड़ी दुनिया ......!

आजकल सड़कों का सारा ट्रेफिक गायब है
होगा भी तो हमें नहीं मिलता
किसी के कुछ कहने से पहले ही मुस्करा पड़ता हूँ
कभी बहस नहीं करता किसी से
बल्कि मेरी बेफ़िक्री पर अब औरों को गुस्सा आता है
दुनिया का हर काम मेरी रूचि का हो गया है
हर इन्सान प्यारा लगता है
हर वक़्त प्यारा लगता है
हर जगह प्यारी लगती है
ये वही आसमान है न
जो आग का समंदर लगता था
अचानक तारों की जगह इतने सारे फूल ...
इतनी खुशबू  ...

मुझे कुछ नहीं हुआ है
कुछ हो गया है तो बस इस दुनिया को
निगोड़ी एकदम से बदल गयी है !

- आनंद 

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

आम लोगों की फ़िकर सरकार में मत ढूँढिए

आम लोगों की फ़िकर सरकार में मत ढूँढिए
आजकल अच्छी ख़बर अख़बार में मत ढूँढिए

दूसरों का दर्द भी,  अपना समझना चाहिए ,
बात अच्छी है, मगर व्यवहार में मत ढूँढिए

आदतन मजबूर है वो, ज़ख्म ही दे पायेगा
फूल के जैसा असर तलवार में मत ढूँढिए

देखिये घर भी महकता है किसी के प्यार से
खुशबुओं को उम्र भर बाज़ार में मत ढूँढिए

प्रेम का हर रंग सर माथे लगाकर देखिये
सिर्फ़ खुशियों की नज़र ही यार में मत ढूँढिये

वो वहीं है, जिस जगह सेवा समर्पण प्यार है
दोस्तों  'आनंद' को अधिकार में मत ढूँढिये

 - आनंद 

सोमवार, 5 अगस्त 2013

दिल्ली की दौड़ ....

हमेशा सुना था कि कोई इंसान पूर्ण नहीं होता ...
सब में कुछ न कुछ कमियां होती ही हैं .... ऐसा क्यों करता है ऊपर वाला ? क्यों हमारे कुछ टुकड़े.... हमारे अपने टुकड़े इधर उधर फेंक देता है ... जिसे हम जीवन भर ढूंढते रहते हैं ... सब कुछ होते हुए भी कुछ न कुछ सबका होता है जो नहीं होता अपने पास .......... ! कोई पा भी जाता है जल्द ही उन अंशों को ...जल्द पा जाता है .... और किसी का नसीब 
 अब ये मत कहना कि तलाश नहीं होती है सब को होती है बस रूप अलग अलग होते हैं किसी को पैसा किसी को प्रेम किसी को ज्ञान किसी को मोक्ष मगर हर बंदा शामिल है इस बिरादरी में ... 

अब जरा सी बात इज़ाज़त हो तो हम अपनी दिल्ली वालों की करलें .........
हर बंदा न केवल ख़ोज रहा है बल्कि दौड़ रहा है ...ऐसा भागता हुआ शहर आपको दुनिया में शायद ही कहीं मिले (केवल अनुमान के आधार पर क्योंकि मैं विश्वभ्रमण करके नहीं लौटा हूँ  ) .... 

यहाँ मेट्रो का गेट खुलता है तो लोग दौड़ते हुए उतरते हैं ...
सीढियां या एस्कलेटर तक दौड़ते हुए पहुँचते हैं ... अन्दर घुसने वाले भी दौड़ कर मेट्रो में दाखिल होते हैं ...रेड लाइट पर गाड़ी रोकते हैं तो लगभग सामने से पास होने वाले ट्रेफ़िक का आधा रास्ता रोक लेते हैं ... रेडलाईट होने के बाद भी मजबूरी में रुकते हैं और पीली लाइट होते ही चल पड़ते हैं .. बस में दौड़कर चढ़ते हैं उतर कर भी लगभग दौड़ लगा देते हैं .... लोग बसों में या अपनी गाड़ियों में आपको नाश्ता तक करते हुए अक्सर मिल जायेंगे..... कभी दो पल आराम से कहीं खड़े होकर यह दौड़ देखिये .....
मैं भी इसी का हिस्सा हूँ यारों ... पर क्यों ... मेरा टुकड़ा .... अंश कहाँ है ?

- आनंद