बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

कहीं तुम भी ...?


सुबह उगते हुए सूरज को देखना
देखना ओस की कोई अकेली बूँद
खय्याम की रुबाई से रूबरू होना
या फिर गुनगुनाना मीर की ग़ज़ल
आफिस की मेज़ को बना लेना तबला
और पल भर को  जी लेना बचपन
ऐसा ही कुछ कुछ है तुम्हारा अहसास
जिसे ठीक से कह पाना असंभव
कभी सुनो मेरे ठहाकों में खुद को
कभी पढ़ो मेरे आँसुओं में अपनी कविता
कि ढूंढो मेरे अंधेरो में अपनी छाया
और लहलहाओ मेरे मौन में
बनकर सरगोशियों की फ़सल

मुद्दत से तुम्हें कहने की कोशिश में हूँ
मगर एक भी उपमा नहीं भाती मन को
रह जाते हो तुम हमेशा ही अकथ
जैसे अनकही रह गयी मेरी वेदना
जैसे अनलिखी रह गयी मेरी कविता
जैसे अनछुआ रह गया एक फूल
जैसे अनहुआ रह गया मेरा प्रेम
कि जैसे अनजिया बीत गया एक जीवन

सुनो !
कहीं तुम भी
किसी का जीवन तो नहीं ?

- आनंद






मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

मेरा डूबना

न जाने क्यूँ
यह मानने का मन नहीं करता
कि प्राण भारहीन होते हैं
या होते हैं सिर्फ हवा भर
क्योंकि
एक तुम्हारे न होने से
कितना हल्का हो जाता हूँ मैं
कि आ जाता हूँ एकदम सतह पर
जैसे कोई लाश
तैरने लगता हूँ धारा के साथ
बिना किसी इच्छा के
इच्छाएँ
निशानी हैं जीवन की
इनसे चिढो मत
मसलन एक ये इच्छा
कि तुम भर जाओ मुझमे एक बार
और मैं डूब जाऊं
हमेशा के लिए !


- आनंद

सोमवार, 28 जनवरी 2013

जल है तो अब प्यास नहीं है

तू जो मेरी आस नहीं  है
जीने का अहसास नहीं है

यद्यपि कुछ संत्रास नहीं है
पर वैसा उल्लास नहीं है

जाने उसको क्या प्यारा हो
कुछ भी  मेरे पास नहीं है

यूँ तो दुनिया भर के रिश्ते
लेकिन कोई ख़ास नहीं है

भागीरथी नहीं हर नदिया
हर पर्वत कैलाश नहीं है

कैसा सपना दूं आँखों को
अब ये ही विश्वास नहीं है

मृगमरीचिका जीवन बीता
जल है तो अब प्यास नहीं है 

खोजूँ मैं 'आनंद' कहाँ पर 
जब वो खुद के पास नहीं है 

- आनंद 

रविवार, 27 जनवरी 2013

'आनंद' मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर...

जब तक है जाँ बवाल हैं सारे जहान के,
कितने ही ख़्वाब देख लिये इत्मिनान के।

ऐ जिंदगी  ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के ।

दुनिया के गलत काम का अड्डा बना रहा,
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के ।

जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर,
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के ।

तेरे लिए भी ग़ैर हैं, खुद के ही  कब  हुए
ना हम ज़मीन के रहे, न आसमान  के ।

'आनंद' मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर,
झगड़े अभी भी चल रहे  गीता कुरान के ।

- आनंद


शनिवार, 26 जनवरी 2013

इमरोज़ ; एक नज़्म ...कि जैसे मंदिर में लौ दिए की !

वक़्त मुहब्बत को
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......
(इमरोज़ की पंजाबी नज़्म ; अनुवाद: हरकीरत हीर  )

आधी रोटी पूरा चाँद 

वह पूरे चाँद की एक रात थी । बात शायद १९५९ की है, मैं दिल्ली रेडियो में काम करती थी, और वापसी पर मुझे दफ़्तर की गाड़ी मिलती थी । एक दिन दफ़्तर की गाड़ी मिलने में बहुत देर हो गई उस दिन इमरोज़ मुझसे मिलने के लिए वहां आया हुआ था, और जब इंतज़ार करते करते बहुत देर हो गयी, तो उसने कहा चलो, मैं घर छोड़ आता हूँ ।
     वहां से चले तो बाहर पुरे चाँद की रात देखकर कोई स्कूटर टैक्सी लेने का मन नहीं किया । पैदल चल दिए पटेल नगर। पहुँचते पहुंचते बहुत देर हो गयी थी, इसलिए मैंने घर के नौकर से कहा मेरे लिए जो कुछ भी पका हुआ है, वह दो थालियों में डालकर ले आये ।
     रोटी आई, तो हर थाली में बहुत छोटी छोटी एक-एक तंदूरी रोटी थी । मुझे लगा कि एक रोटी से इमरोज़ का क्या होगा, इसलिए उसकी आँख बचाकर मैंने अपनी थाली की एक रोटी में से आधी रोटी उसकी थाली में रख दी।
     बहुत बरसों के बाद इमरोज़ ने कहीं इस घटना को लिखा था - 'आधी रोटी; पूरा चाँद'- पर उस दिन तक हम दोनों को सपना सा भी नहीं था वक़्त आएगा, जब हम दोनों मिलकर जो रोटी कमाएंगे आधी-आधी बाँट लेंगे ....

___________________(इमरोज़ के बारे में लिखते हुए अमृता ; रशीदी टिकट से)

अमृता प्रीतम और इमरोज़ ; कि जैसे मंदिर में लौ दिए की

आज छब्बीस जनवरी गणतंत्र दिवस और छुट्टी का एक दिन जरा देर से सोकर उठता हूँ,  आदतन मोबाइल चालू करता हूँ कुछ अन्तराल के बाद ही एक मैसेज 'हरकीरत हीर' जी का ...
"आज इमरोज़ जी का जन्म दिन है" ओह ...मुझे कुछ याद क्यों नहीं रहता  अब .... मैसेज तो कान खींचकर भाग गया मेरे .....  मैंने हीर जी को कहा 'अरे मेरे पास उनका नंबर नहीं है कैसे बधाई दूं  .... हीर जी से नंबर लेकर फ़ोन करता हूँ वही शांत मीठी ध्यान में डूबी हुए हुई आवाज़ ... थोड़ी देर बात होती है शुभकामनाएं देने का बाद ..पूछते हैं तुमतो नज़्में लिखते हो न मैंने कहा जी हाँ , तो कहने लगे फिर एक नज़्म लिखकर मुझे भेजो वही होगा मेरे जन्मदिन का तोहफ़ा ... मैं सोचता रहा कि नज़्म खुद हैं वो  उनपर क्या नज़्म लिखूं  फिर भी :-


इमरोज़ ...
इंसान ...नहीं, मोहब्बत !
नहीं नहीं ...
'ख़ुदा'
हाँ इमरोज़.... ख़ुदा !
इससे छोटा कोई भी शब्द नहीं हो सकता तुम्हारे लिए
और इससे बड़ा शब्द नहीं जाना मैंने आजतक
जैसे तुमने नहीं जाना शिक़वा
नहीं जाना कुछ पाने की इच्छा
नहीं जाना फिर और कुछ भी
उसे जानने के बाद
बस हो गए प्रेम के
हो गए प्रेम।

इमरोज़
तुम्हीं हो सकते थे ये नज़ीर
कि जब जब प्रेम करने वालों को
धरती पर किसी अपने की जरूरत हो
वो ढूंढ ले तुम में
हर वो अक्स
जो पाक़ है , मुक़द्दस है
जो है नूर उस इश्क़ का
जिसकी ख़ुशबू से महक रहा है
जर्रा-जर्रा इस कायनात का
अमृता के महबूब
तुम्हें सलाम
कि इश्क़ की मिसाल
तुम्हें सलाम !

-आनंद की तरफ से जन्मदिन की बहुत बहुत मुबारकबाद !