जब तक है जाँ बवाल हैं सारे जहान के,
कितने ही ख़्वाब देख लिये इत्मिनान के।
ऐ जिंदगी ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के ।
दुनिया के गलत काम का अड्डा बना रहा,
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के ।
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर,
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के ।
तेरे लिए भी ग़ैर हैं, खुद के ही कब हुए
ना हम ज़मीन के रहे, न आसमान के ।
'आनंद' मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर,
झगड़े अभी भी चल रहे गीता कुरान के ।
- आनंद
कितने ही ख़्वाब देख लिये इत्मिनान के।
ऐ जिंदगी ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के ।
दुनिया के गलत काम का अड्डा बना रहा,
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के ।
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर,
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के ।
तेरे लिए भी ग़ैर हैं, खुद के ही कब हुए
ना हम ज़मीन के रहे, न आसमान के ।
'आनंद' मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर,
झगड़े अभी भी चल रहे गीता कुरान के ।
- आनंद
ऐ ज़िंदगी ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के
यही सवाल मैंने भी अक्सर पूछा है...
लेकिन , ज़िंदगी न ठहरती है , न ही कुछ सोचती है ,
न ही जवाब देती है ... ... ...
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आनंद जी !
तमाम शेर काबिले-तारीफ !
जानता हूं आपको तारीफ़ का कोई मोह नहीं
:)
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
आप सदा आदरणीय है दादा ..आपका आशिर्वाद तो अमूल्य है बेशक मेरी टिप्पड़ियों में रूचि नहीं है !
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