रविवार, 13 नवंबर 2011

मेरा पथ सुंदर करने को ..



मेरा पथ सुंदर करने को
कितने कष्ट उठाये तुमने
मेरे मन का तम हरने को
कितने दीप जलाये तुमने

तुमसा प्रेम निभाने वाला
इस धरती पर कौन मिलेगा
तुम सा सुंदर पुष्प दूसरा
अब उपवन में कहाँ खिलेगा
जब खुशबू का ज्ञान नहीं था
तब भी पल महकाए तुमने ,
मेरे मन का तम हरने को, कितने दीप जलाये तुमने |

'मैं हूँ' 'मेरा है' जब तक था
तब तक तुमको समझ न पाया
फिर भी कदम कदम पर हमदम 
तुमने सच  का बोध कराया ,
गीता के श्लोक हो गए
जो जो गीत सुनाये तुमने |
मेरे मन का तम हरने को , कितने दीप जलाये तुमने |

तेरी राहों में ये जीवन
अपने आप समर्पित प्रियतम
अंतर में अद्वैत प्रकाशित
अब तो न मैं हूँ और न तुम
प्रेम शांति और अहोभाव के
मुझमे बीज जगाये  तुमने |
मेरा पथ सुंदर करने को, कितने कष्ट उठाये तुमने |
मेरे मन का तम हरने को, कितने दीप जलाये तुमने ||

 - आनंद द्विवेदी - १३/११/२०११.

सोमवार, 7 नवंबर 2011

तेरे बाद ......



एक और पल

तुम कहते थे ना
जी लो
इन पलों को
ये चले गए तो
लौटकर नहीं आयेंगे....
अहं में डूबा हुआ
मैं
नहीं समझा पाया
तब
तुम्हारी बात |
सुनो !
क्या तुम्हारे पास
एक और पल है ?
वैसा ही !

कुछ भी नही है

कल तक
मेरे पास
समय नही था
किसी काम के लिए
आज
मेरे पास
कोई काम नही है
करने को |
बस एक
तू ही तो नही है
मगर
ऐसा क्यों लगता है कि
कुछ भी नही है
दुनिया में
मेरे लिए
अब !!

आनंद द्विवेदी ०७/११/२०११

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

हर सांस तेरा नाम लिये जा रहा हूँ मैं




हर सांस तेरा नाम लिए जा रहा हूँ मैं
सारे हसींन ख्वाब जिए जा रहा हूँ मैं !!


तू मुझको संभाले ना संभाले तेरी मर्ज़ी ,
इतना तो होश है की पिए जा रहा हूँ मैं !

मूरत पे हक़ किसी का, पर 'श्याम' तो मेरा,
कुछ इस तरह से प्यार किये जा रहा हूँ मैं !

कातिल ने इस दफा भी मेरी जान बक्स दी ,
अब इस अदा पे जान दिए जा रहा हूँ मैं !


मैं जाऊं जहाँ भी, वो जगह तेरा दर लगे ,
इतना तो तुझे साथ लिए जा रहा हूँ मैं !

दिल में तेरे रहूँ ,भला इसकी भी फिक्र क्या
'आनंद' तेरे नाम किये जा रहा हूँ मैं   !



आनंद द्विवेदी -  ०१/११/२०११

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

नि:सीम..



तोड़ कर 
दुनिया भर की 
सीमाओं को ,
सही गलत के 
विश्लेषण से परे ,
घटित हुआ था 
हमारा प्रेम ..
जिया है 
हर पल जिसे 
होते हुए हमने 
किसी मंदिर में ..
फिर
एक दिन अचानक....

क्यों बांधना चाहा था मैंने,
तुमको ,
सीमाओं में !
क्यूँ सोच न पाया मैं 
कि 
नहीं है प्रेम 
मंदिर की 
सीमाओं तक ही !!!

सुन ..!
ओ मेरे
प्रेम गगन के पंछी,
ले  कर
मेरी साँसों से
अपने प्यार के
संदल की खुशबू ,
दे विस्तार 
अपनी  
सहज ,
स्वाभाविक 
उड़ान को...
हो जाये सुरभित
जिससे
ये धरती
क्या ,
आकाश भी !!

आनंद द्विवेदी २५/१०/२०११

शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

तुम..!



तुम गुजरते हो जिन राहों से
जल उठते हैं दीप
स्वतः ही ,
मुरझाये पौधों में भी
चहक उठता है
जीवन ..
हवाओं की
सरसराहट में भी
गूँज उठता है
एक अनोखा
संगीत ,
देखो न !!!
कैसे
सारी प्रकृति
तुम्हारे बहाने से
जाहिर करती है
खुशियाँ
अपनी !


महसूस करके
तुम्हे
जड़ भी
चेतन हो जाए..
छूने से तुम्हारे
इंसान भी
देवता हो जाए...
एक नजर
प्यार से देख लो तुम
तो
मरुस्थल में भी
बसंत खिल जाए..
तुम्हे
पाने वाला
पूरी दुनिया का
अभीष्ट बन जाए !

किसी ने
देखा नहीं
भगवान को,
सुना ही था कि
'प्रेम में ही भगवान मिलते है '
आज पहली बार
ऐसा लग रहा है
कि
कहने वाले
सच ही कहते हैं !!

आनंद द्विवेदी २५/१०/२०११