मंगलवार, 1 मार्च 2011

एक मित्र के जन्मदिन पर !


जीवन का एक और बसंत बीत गया
बसंत ऋतु के इस बासंतिक  जन्म दिन पर
अनुराग मिश्रित 
शुभकामनायें !
कामना विराट को छूने की 
कामना विराट होने की ...
विराट के सृजन की,
अपरिहार्य नहीं है गगन होना
पर गगन को 
छूने की कोशिश अपरिहार्य है,
कामना है नव सृजन की
पर पूर्व सृजन को सहेजने की अभिलाषा भी 
उतनी ही उत्कृष्ट है,
कामना है तुम्हारे निर्णय कालजयी हों
कंटक विहीन पथ हो,
श्रम हो,  .... पर संधि न हो
सम्मान हो पर मृदुलता भी हो
गर्व हो पर दर्प न हो !
इच्छित प्राप्त करो पर इच्छाएं नियंत्रित हों
भोग करो पर किसी का 'भाग' हरण मत करो
असीम बनो पर
सीमाओं का मान करो ,
सब की पहचान बनो..पर
सबको पहचानो भी
ऐसी ही है ऊटपटांग मेरी शुभकामना आपके जन्मदिन पर
आपके एक नूतन जन्म की 
अस्तु !

       --आनंद द्विवेदी ०१/०३/२०११

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

आखिर क्यों ?


क्यों अंसुओं से भरे तुम्हारे नयन, हमारी व्यथा जानकर ?
क्यों न सहज ही टाला तुमने, इसे जगत की प्रथा मानकर ?

                क्यों मेरा सूनापन तुमको रास न आया
                क्यों तुमने मुझको इतना आकाश चढ़ाया,
                आंसू  बनकर खुद मिटटी में मिलजाता मैं,
                तुमने क्यों मेरी खातिर दामन फैलाया ?
क्यों मेरी उखड़ी सांसों को सुना, दर्द की कथा मनाकर ?
क्यों न सहज ही टाला तुमने, इसे जगत की प्रथा मानकर ?


               जाने क्या-क्या खोकर मैंने तुमको पाया,
               तुमने मेरा परिचय तृष्णा से करवाया ,
               मेरी काली सांझें मुझको डसती रहती ,
               क्यों तुमने आकर चुपके से दीप जलाया ?
क्यों तट से तुम लौट न पाए मुझको सागर मथा जानकर ?
क्यों न सहज ही टाला तुमने, इसे जगत की प्रथा मानकर ?

              क्यों मुझको खोने का डर मन में बैठाया,
              क्यों अपनी खुशियों को खुद ही आग लगाया
              मैं कंटक पथ का अनुगामी था, प्रिय तुमने
              मेरी खातिर क्यों प्रसून पथ को ठुकराया ?
आखिर क्यों पी डाला तुमने मेरे विष को, सुधा मानकर ?
क्यों न सहज ही टाला तुमने, इसे जगत की प्रथा मानकर ??

                 --आनंद द्विवेदी २४-०२-२०११

दर्द पन्नों पे उतरा किया मैं रातों को




याद में तेरी गुजारा  किया  मैं  रातों  को,
अपने ख्वाबों को संवारा किया मैं रातों को !

अपनी किस्मत में मुकम्मल जहान हो कैसे ,
बना - बना के बिगाड़ा  किया मैं रातों को  !

पास रहकर भी बहुत दूर बहुत दूर हो तुम,
दूर रहकर भी पुकारा किया मैं रातों को !

दर्द तुझमे भी है लेकिन वो किसी और का है,
तेरा वो दर्द  दुलारा  किया मैं  रातों  को !

तेरी रुसवाई भी कमबख्त भा गयी मन को,
इसी का लेके सहारा जिया मैं रातों को !

तुने मुझमे भी किसी और की झलक देखी,
तभी से खुद को निहारा किया मैं रातों को !

बड़ा हसीन सा 'आनंद' जिंदगी ने दिया,
दर्द पन्नों पे उतारा किया मैं रातों को !!

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

फांस बनकर गले में अटकी हुई है जिंदगी



फाँस बनकर गले में अटकी हुई  है जिंदगी ,
कशमकश के शहर में भटकी हुई है जिंदगी !

वो जो पत्थर सामने है, वफ़ा का है प्यार का,
उसी पर खूब जोर से  पटकी हुई  है जिंदगी ! 

अपने टूटे पाँव लेकर जो पड़ी है खाट  पर , 
उनके दर से धूल सी झटकी हुई है जिंदगी ! 

सड़क पर की धूप से बेचैन होकर, भागकर 
छत में पंखे से यहाँ  लटकी  हुई  है जिंदगी !

छटपटाता हुआ एक 'आनंद' इसमें कैद है ,
दर्द से हर जोड़ पर चटकी हुई है जिंदगी  !!

 --आनंद द्विवेदी १९/०२/२०११

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

एक संजय चाहिए !


हम भारतवासी हैं
भारत !
जिसमे नेता धृतराष्ट्र  हैं
जनता....गांधारी है
पट्टी चेतना पर भी है
आत्मा पर भी !!
भारत
पट्टी के पीछे आँखों में है
दूर दृष्टि का भ्रम पाले
किन्तु अन्धा सा !
भारत
खड़ा है स्तब्ध निह्सहाय
गांधारी धृतराष्ट्र को टटोल रही है
और धृतराष्ट्र ?
वह न आत्मावलोकन कर पा रहा है
न गांधारी को देख पा रहा है
दोनों में एक समानता है अंधेपन की
एक संजय चाहिए भारत को,
जो आगे बढ़कर गांधारी की आँखों से
पट्टी नोच ले
झंझोड़ दे  अंधी चेतना को
बस........!
इतने से काम के लिए
एक संजय चाहिए
क्योंकि बाकी सब अपने आप हो जायेगा !!

           --आनन्द द्विवेदी ०९/०२/२०११