सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

वरदान अकेलापन !

जिस अकेलेपन को 
जीवन भर कोसता रहा
दुख मनाता रहा जिसका
वही अब  सुख है
अमृत है,

नहीं होता जब कहीं कोई
पसरता है मीलों सन्नाटा
छूट जाती है दुनिया पीछे
छूट जाता है सारा कारोबार
सपने, आशाएँ
उदासियाँ निराशाएँ … भय
सब के सब

तब
अचानक आकर तुम्हारा अहसास
लिपट जाता है रूह से मेरी
मैं जीता हूँ तुमको …पा लेता हूँ खुद को,
निपट तन्हाई में तुम और मैं
आख़िर यही तो थी मेरी कल्पना
युगों से
जन्मों से,

एक सोच
एक जीवन
और एक दुनिया,
जादूगर!
तुम चाहो तो क्या नहीं बदल सकते !!

- आनंद

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

अकथ

मैंने कह दिया,
लेकिन
कह पाया
केवल खुद को
नहीं नहीं
खुद की इच्छाओं को,

अकथ
आज भी
नहीं कहा जा सका मुझसे
मैं ये क्या कह रहा हूँ
और क्यों ?

पर... क्या मैं
कह रहा हूँ ये सब,
मैं तो तुम हो गया हूँ
प्रियतम

ये कहना भी
अर्चन है तुम्हारा
मेरे मंदिर के घंटियों की ध्वनियाँ
इन्हें  बेतरतीब ही
स्वीकार लो !

- आनंद  

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

मुस्कराते ख़्वाब !

नींद में ही था
कि तुम्हारी याद
छिड़क कर भाग गयी
एक चुटकी मुस्कराहट
होठों पर, 
पर...तुम तो सैकड़ों कोस दूर हो
ये कौन सुबह सुबह नाक दबाकर भाग गया फिर ?

ये मुस्कराहटें...
कब बोयी थी तुमने हमारे लिए
अब एकदम लहलहा रही हैं
धान की पकी बालियों की तरह !
तुम्हारे अहसासों की पाग बाँध
मैं भी निकल पड़ा हूँ
खेतों की तरफ
सुनूँगा गन्ने की पत्तियों की सरसराहट
देखूँगा बालियों का नाचना
कातिक की इस सोना बिखेरती दोपहर भर
पड़ा रहूँगा किसी मेंड़ पर,

खेलूँगा सारा दिन तुम्हारी यादों से
बार बार हटा दूंगा
तुम्हारे चेहरे पर आती वो शरारती लट,
दिखाऊंगा तुम्हें 
नहर किनारे टहलता हुआ 
सारस का जोड़ा,
जलमुर्गी और टिटिहरी के अंडे,
दूर चटक नीले आसमान के नीचे
उड़ता हुआ सफ़ेद हवाई जहाज...,
उससे जरा नीचे पक्षियों के भागते झुंड,
छील छील कर खिलाऊंगा
अपने हाथ से तोड़कर कच्चे सिंघाड़े
और नज़रें बचाकर झाँकूंगा तुम्हारी आँखों में ...

बस
उसके बाद
या तो और ख़्वाब देखूँगा
या फिर
कोई ख़्वाब नहीं देखूँगा !

- आनंद

सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

बेबस प्रेम

तुम जब भी
जरा सा भी
अपनेपन से बोल देते हो
केवल मानवता के नाते,
मन...
उस दिन बहुत जिद करता है
सारी दुनिया में तुम्हारी तारीफ़ करने की
और
रोने की,
बहाने से करता है वह
दोनों काम
दोस्त तलाशता है
बातें करने के लिए
बहाने से तुम्हारी तारीफ़ करता है
एकांत तलाशता है
फूट फूट कर रोने के लिए
और बिना किसी बहाने के रोता है

नहीं जान पाया
कि कब इतना टूट गया
ये मन !
बावरा अब जरा सा भी
उम्मीद की आहट सुनते ही
कातर हो उठता है
जैसे मौन रूप से तैयार करने लगा हो खुद को
एक अगली सजा के लिए,
जानता हूँ
प्रेम जबरन नहीं होता किसी से
मगर हो जाय तो  ये बैरी
जबरन  मिटता भी तो नहीं,
अपने वश में तो न खोना है
न पाना
अपन को बस एक ही काम आता है
डबडबाई आँखों से मुस्कराना ...

सुनो !
किसी को इस कदर जीत लेने का हुनर
मुझे भी बताओ न कभी ...!

- आनंद


बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

तेरी गंध !


कौन समझेगा इन मौसमों को
और समझने की कोशिश भी क्यों
पल पल बदलती कायनात
अहोभाव से भरा हुआ वजूद
प्रेम से भरा हुआ दिल
रजनीगंधा सी महकती हवाएँ
संगीत सी बजती ध्वनियाँ
उर्जाओं से लयबद्ध कदमताल
हर तरफ बेवज़ह आतिशबाज़ियाँ
क्या है ये सब
एक तेरी आहट में इतनी शक्ति ?
दुनिया हर कदम पर चकित करती है
और चकित करती है
प्रेम की अपार शक्ति

ईश्वर नगाड़े बजाता है कई बार
बहरे बने हम
मैं मैं के आगे नहीं सुनते कुछ भी,
सुनो अनाड़ी प्रियतम !
(अनाड़ी इसलिए कि जितना लेते हो उससे ज्यादा दे जाते हो)
ले जाओ मुझसे जो भी है मेरे आसपास
रखना चाहता हूँ हर पल खाली यह घट मैं
अपनी कामनाओं से
ताकि तुम्हारे अहसास की सुगंध
बे-रोकटोक आती और जाती रहे
और जब मिट्टी का यह घट फूटे
तो न निकले इससे मेरी इच्छाओं का मलबा
बल्कि बिखरे इससे तुम्हारी सुगंध
तुम्हारी ही सुरभि !

- आनंद