सोमवार, 29 नवंबर 2010

मैं ख़बरदार न होता तो भला क्या होता



आपसे प्यार न होता, तो भला क्या होता,
मैं गुनहगार न होता तो भला क्या होता !

चश्मे-नरगिस उठा के यूँ झुका लिया उसने
हाय  इज़हार न होता, तो भला क्या होता !

किसी की आँख  में सावन बसा के, भूल गए
ये इन्तजार  न होता तो भला क्या होता  !

हर तरफ जिक्र है  तेरी निगाहे-खंजर का,
जिगर के पार न होता, तो भला क्या होता !

आपकी आंख के ये  मयकदे  कहाँ  जाते  ?
मैं जो मयख्वार न होता, तो भला क्या होता !

जिधर भी देखिये रुसवाइयों का रोना  है
मैं खबरदार न होता तो भला क्या होता !

मैंने भी चाँद को छूने कि इज़ाज़त माँगी
आज  इंकार न होता, तो भला क्या होता !

ख़्वाब 'आनंद' ने देखा तो  वफ़ा का देखा
ख़्वाब बेकार न होता तो भला क्या होता !

- आनंद

शनिवार, 21 अगस्त 2010

मैं इस देश का सबसे आम आदमी हूँ .........
मेरे ऊपर सरकार अरबों रुपये खर्च कर रही है ...
नेता मेरी चिंता में मरे जा रहे हैं, ......
पुलिस मेरी सुरक्षा में दिन रात एक किये दे रही है .....
मेरी वजह से इस देश के अस्पताल ..
 अदालतें,
यहाँ तक की जेल भी ठसाठस भरे रहते हैं....
मैं हर सड़क और रेल दुर्घटना का शिकार हूँ, 
मैं हर घोटाले ...
हर भ्रष्टाचार  का शिकार हूँ....
आप जहाँ देखेंगे वहन मुझे पा जायेंगे ...
हर समस्या की जड़  में मै ही हूँ ...
मैं इस देश का आम आदमी !!

आनंद द्विवेदी २१-०८-२०१०

मंगलवार, 30 मार्च 2010

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो !
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कभी बड़ी कभी छोटी, दिखायी  देती है ,
ग़ज़ल भी, नोची खसोटी दिखायी देती है |

यह जिंदगी जो हर तरह, खरी थी सौ पैसे,
वक़्त की मार से , खोटी दिखायी देती है |

जब से उनकी दुकान चल गयी, मक्कारी की,
'फलक' पे उनकी लंगोटी दिखयी देती है |

हमारी जिंदगी के हाल न पूछो यारों ,
किसी कंगाल की बेटी दिखयी देती है |

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो,
'हीर' 'राँझा' नहीं 'रोटी' दिखायी देती है |  

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती,
किसी गरीब की इज्ज़त नहीं लुटी होती |

कोई फुटपाथ पर भूखा नहीं सोया होता,
मेरी कलम से अगर रोटियां बटी होती |

मेरी ग़ज़ल है वो झुर्री भरा बूढा चेहरा,
कैसे इज्ज़त को छुपाये है इक फटी धोती |

भरी जवानी में भूखा नहीं सोया होता,
वक़्त से पहले कमर भी नहीं झुकी होती |

अगर ईमान बेंचकर वो कमाता दौलत,
ब्याह करने को नहीं बेटियाँ बची होती |

           ---आनंद द्विवेदी .

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

यहाँ हर इंसान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

मेरे जिस्मो जान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ
हैं दिले-नादान  से लिपटी हुई  तन्हाईयाँ

टूटते इन्सान को  ये  तोड़  देतीं  और भी
प्यार के परवान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

एक खंजर की तरह अहसास में चुभती रहें,
मेरे गिरहेबान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

झनझनाकर टूटता हूँ कांच की मानिंद मैं,
मुस्कराती शान से, लिपटी हुई तन्हाईयाँ

मुझमे इन तन्हाइयों में फर्क है बारीक सा,
मेरी हर पहचान से लिपटी हुई  तन्हाईयाँ

आज कल 'आनंद' है, तन्हाइयों के देश में,
यहाँ  हर  इंसान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ