मंगलवार, 6 नवंबर 2012

हमारी दुनिया

चित्र साभार : इंदिरा विदी 



मैं सोंचता हूँ
कैसे ...
कैसे जा सकते हो तुम
मेरी दुनिया से बाहर 
मैं पूछता हूँ
क्या जा सकते हो
इस आसमाँ से बाहर 
अलग कर सकते हो अपना सूरज 
बना सकते हो 
एक नया चाँद 
एक नयी आकाशगंगा  ?
जब तक तुम अपना सूरज और चाँद 

अलग नहीं कर लेते 
मैं रहूँगा यहीं
तुम्हारी दुनिया में !

कल सुबह जरा जल्दी उठना
और देखना 
सूरज पूरब से ही निकलेगा 
और मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि वो 
लाल ही होगा
अगर 
तुमने अंगडाई न ली तो ....
असल में तुम्हारी इस क्रिया के बाद
प्रकृति में क्या क्या बदलाव आते हैं ..
ये उसे खुद पता नही होता 
मैं कहता हूँ 
कवियों और शायरों के बहकावे में मत आओ
देखो हकीकत यही है कि 
मैं अब भी 
तुम्हारी उसी दुनिया में हूँ
जहाँ दोनों की सुबहें साथ होती हैं 
दिन भी 
शामें भी 
और रात भी !

कसमें ...
दीवानों को रोक सकती हैं 
दीवानापन नही 
दीवारें ...
जिस्मों को रोक सकती है 
अहसास नहीं 
समय ...
मौसम बदल सकता है 
प्रेम नही !!

-आनंद 
१४ मई २०१२

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको ?
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

दैन्य से दुनिया भरी है क्या मिलेगा
ज़ख्म वाला ज़ख्म तेरे क्या सिलेगा
चाहता जो खुद किसी की सरपरस्ती
इन  बुतों में ढूंढता तू  हाय   मस्ती
बंद भी कर खेल अब सारे  अहम के
दे गिरा  तू  आज सब परदे वहम के

सोच तो ! क्यों चाहिए संसार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

आये तो मेहमान घर में कैसे आये
तू खड़ा है द्वार पर सांकल चढ़ाये
चाहते-दुनिया बची तो  क्षेम कैसा
शेष है तू जब तलक फिर प्रेम कैसा
बीच से  खुद को  हटाकर  देख ले
आख़िरी  बाधा  मिटाकर  देख ले

कौन है  जो  रोकता  हर बार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको

एक बाज़ी खेल तू भी संग अपने
देखता चुपचाप रह तू ढंग अपने
एक दिन फिर तू कहीं खो जायेगा
बस उसी दिन तू पिया को पायेगा
नहीं है तेरा यहाँ पर  मेल कोई
खेलने पाये न मन फिर खेल कोई

अब नहीं  कुछ  चाहिए  रे यार तुझको
दर्द क्यों है, क्या नहीं स्वीकार तुझको
क्यों पराजय लग रहा है प्यार तुझको !



- आनंद
30-10-2012










शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक है

शायरी में भर रहे थे एक मयखाने  को हम
अब ग़ज़लगोई करेंगे होश में आने को हम

कौन चाहे  मुल्क  का चेहरा बदलना दोस्तों
भीड़ में शामिल हुए हैं सिर्फ चिल्लाने को हम

देखिये लबरेज़ हैं दिल इश्क से कितने, मगर
मार देंगे 'जाति' से बाहर के दीवाने को हम

एक भी दामन नहीं जो ज़ख्म से महफूज़ हो
रौनकें लाएँ कहाँ से दिल के बहलाने को हम

प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक  है
रोज खायें चोट पर मज़बूर सहलाने को हम

इन दिनों 'आनंद' की बातें बुरी लगने लगीं
भूल ही जाएंगे इस नाकाम बेगाने  को हम

- आनंद
26/10/2012




गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

"बुरा जो देखन मैं चला "




कल सबको रावण दिखायी दे रहा था
पुतले वाला नहीं
'असली' वाला
मैं दंग था कि कोई एक तो मिले जो भ्रम में हो
मगर नहीं
रावण को लेकर आश्चर्यजनक रूप से सबकी जानकारी असंदिग्ध थी
वो यहीं है जीवित और हमारे बीच में है
मेरे सिवा हम सब में है |

गज़ब के नौटंकीबाज़ हैं हम ...सच में
धरती पर और कोई प्रजाति
चरित्रवान होने के मामले में
हमारा मुकाबला नहीं कर सकती
कुछ को आज सुबह तक भी दिख रहा था रावण
जो छूट गए हैं उनके लिये
आज शाम या रात तक अंतिम समय सीमा है
फटाफट आसपास नज़र दौड़ाइये
दो चार तो ढूंढ ही लेंगे
अब चूके
तो ऐसे दुर्लभ आत्मज्ञान के लिये
अगली विजयदशमी का इंतज़ार कैसे हो पायेगा
एक पंक्ति याद आती है
"पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जाति"  
 एक साल बहुत होते हैं भाई
'कालि करे सो आज कर'

________________ समर्पित : रावण जी को इस नोट के साथ कि आप मुझसे लाख गुने अच्छे थे | आपके जीवन में भी कुछ सिद्धांत तो थे कम से कम |

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अब जाना है मुझे


अब जाना है मुझे !
कर लिया इंतज़ार
लिख लिया कवितायें और ग़ज़लें
सबको बता दिया कि तुम हो
मेरे शब्दों में साँसों में
और जीवन में भी
प्राण निकलने से ठीक पहले तक
जब कोई मिलने/देखने आता था
हर बार यही लगा कि... इस बार तुम हो
आखिर इस घड़ी तक तो आस थी ही
सारा जीवन यही तो सोचते रहे,  मरने से पहले कम से कम एक बार...
मन का चोर हर बार कहता रहा 'नहीं' 'वो क्यों ऐसा चाहेंगे'
ऐसे में तुम्हारी बात बार-बार याद आती
"मन के उपद्रव में मत पड़ना, ये लाख भटकाने की कोशिश करेगा"
"अपना यकीन बनाये रखना"
बना रहा मैं सारा जीवन
आशा और निराशा की जंग का मैदान
जब तक साँस तब तक आस
अब लगाना तुम कयास
पहले साँस टूटी
कि आस |

पर तुम्हें क्या पड़ी अपना समय जाया करो
ऐसी बेकार की बातों में,
हो सकता है कभी यह कविता
तुम्हारी नज़र से गुज़रे
इस लिये एक बात बता देता हूँ
मैंने तुम्हारे कहे अनुसार ही हमेशा खिड़की दरवाजे खुले रखे
पर कभी कोई नहीं आया
तुम्हारी ये दुनिया भी
एकदम तुम्ही पर गयी है
हाँ एक साथी मिला था, प्यारा सा
मुझे भाया भी बहुत
पर उसके पास मेरे लिये कुछ नहीं था
समय भी नहीं |

इस लिये अब राम राम !
राम ही क्यों ?
दो कारण हैं  एक तो खून में बहती बाबा की ये चौपाई ;
'जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं / अंत राम कहि आवत नाहीं'
और दूजा ये कि
तुम्हारा नाम ले लिया तो फिर ख़्वाब जाग जायेंगे
और मैं
सपनों के बीच में नहीं मरना चाहता |

- आनंद
 २०-१०-२०१२