शनिवार, 25 दिसंबर 2010

खुदा भला करे इनके खरीददारों का

रंग हल्का नही होगा कभी दीवारों का,
उसने ले रखा है ठेका, यहाँ बहारों का !

लोग थकते नही  करते सलाम दरिया को,
हाल पूछेगा कौन ढह रहे किनारों का  !

ईद का चाँद आपको भी नज़र आ जाये,
काम फिर क्या बचेगा, सोंचिये मीनारों का ?

गौर से देखिये हर चीज़ यहाँ बिकती है,
खुदा भला करे, इनके खरीददारों का !

मैंने हर जख्म करीने से सजा रखा है,
दिल भी अहसानफरामोश नही यारों का !

तमाम मुल्क का दुःख दर्द दूर कर देंगे,
चल रहा इन दिनों अनशन 'रंगे सियारों' का ! 

भूख कि छत तले 'आनंद' दब गया यारों,
दोष इसमें नही, टूटी हुई दीवारों का  !!

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

एक दिन

एक दिन...
चुपके से मेरे कान में
किसी ने यूँ ही कहा था
'तुम बहुत अच्छे हो' !!

वो मुलायम नरम सरगोशी
आज भी मुझको
बखूबी याद है
मैंने पाई है सजाये मौत जिससे
यही सरगोशी
तो वो जल्लाद है,

एक दिन
भटके मुशाफिर सी ख़ुशी
यकायक आई मेरी दालान में
उसी ने
यूँ ही  कहा था
तुम बहुत अच्छे हो !!

_आनंद द्विवेदी
३०-११-२०१० 

सोमवार, 29 नवंबर 2010

मैं ख़बरदार न होता तो भला क्या होता



आपसे प्यार न होता, तो भला क्या होता,
मैं गुनहगार न होता तो भला क्या होता !

चश्मे-नरगिस उठा के यूँ झुका लिया उसने
हाय  इज़हार न होता, तो भला क्या होता !

किसी की आँख  में सावन बसा के, भूल गए
ये इन्तजार  न होता तो भला क्या होता  !

हर तरफ जिक्र है  तेरी निगाहे-खंजर का,
जिगर के पार न होता, तो भला क्या होता !

आपकी आंख के ये  मयकदे  कहाँ  जाते  ?
मैं जो मयख्वार न होता, तो भला क्या होता !

जिधर भी देखिये रुसवाइयों का रोना  है
मैं खबरदार न होता तो भला क्या होता !

मैंने भी चाँद को छूने कि इज़ाज़त माँगी
आज  इंकार न होता, तो भला क्या होता !

ख़्वाब 'आनंद' ने देखा तो  वफ़ा का देखा
ख़्वाब बेकार न होता तो भला क्या होता !

- आनंद

शनिवार, 21 अगस्त 2010

मैं इस देश का सबसे आम आदमी हूँ .........
मेरे ऊपर सरकार अरबों रुपये खर्च कर रही है ...
नेता मेरी चिंता में मरे जा रहे हैं, ......
पुलिस मेरी सुरक्षा में दिन रात एक किये दे रही है .....
मेरी वजह से इस देश के अस्पताल ..
 अदालतें,
यहाँ तक की जेल भी ठसाठस भरे रहते हैं....
मैं हर सड़क और रेल दुर्घटना का शिकार हूँ, 
मैं हर घोटाले ...
हर भ्रष्टाचार  का शिकार हूँ....
आप जहाँ देखेंगे वहन मुझे पा जायेंगे ...
हर समस्या की जड़  में मै ही हूँ ...
मैं इस देश का आम आदमी !!

आनंद द्विवेदी २१-०८-२०१०

मंगलवार, 30 मार्च 2010

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो !
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कभी बड़ी कभी छोटी, दिखायी  देती है ,
ग़ज़ल भी, नोची खसोटी दिखायी देती है |

यह जिंदगी जो हर तरह, खरी थी सौ पैसे,
वक़्त की मार से , खोटी दिखायी देती है |

जब से उनकी दुकान चल गयी, मक्कारी की,
'फलक' पे उनकी लंगोटी दिखयी देती है |

हमारी जिंदगी के हाल न पूछो यारों ,
किसी कंगाल की बेटी दिखयी देती है |

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो,
'हीर' 'राँझा' नहीं 'रोटी' दिखायी देती है |