शनिवार, 15 मार्च 2014

होरी में विरह ; कुछ दोहे



मस्तानों की टोलियाँ नाचें ढोल बजाय
फागुन में सब छूट है , चाहे जो बौराय

भरि पिचकारी आगया करने तंग बसंत
ज्यों सपनों में छेड़ते हैं परदेशी कंत

अँगिया गीली हो गयी सिहरै सकल शरीर
दोखी फागुन का जनै बिरही मन कै पीर

मस्ती सारे बदन में, अंखियन चढ़ा खुमार
बिन साजन बैरी हुआ, होरी का  त्यौहार

मन का पंछी है हठी ढूँढै  लाख  उपाय
प्रियतम की तस्वीर में रहा अबीर लगाय

तान न छेड़ो फाग की डारो नहीं गुलाल
ये ऋतु है उनके बिना जस विधवा का गाल

- आनंद
होली २०१४ पर








4 टिप्‍पणियां:


  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन संदीप उन्नीकृष्णन अमर रहे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बिन साजन बैरी हुआ होली का त्यौहार.....
    बहुत बढ़िया दोहे...
    होली की शुभकामनाएं
    अनु

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  3. मन का मीत मान ले मन का बिन तेरे फागुन फीका रे ।

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