सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ऐसे ही नहीं आग लगाते रहे हैं लोग




ऐसे ही नहीं  आग  लगाते रहे  हैं लोग, 
जलने का सलीका भी सिखाते रहे हैं लोग 

थोड़ी बहुत तो मेरी फिकर भी रही उन्हें
अपने तमाम फ़र्ज़ निभाते रहे  हैं लोग 

क्या कीजिये जो कोई दुआ काम न करे,
मेरे  लिए  तो  हाथ  उठाते रहे  हैं लोग

मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग 

चलना फ़ना की राह तो फिर ये हिसाब क्या
किस किस तरह से मुझको सताते रहे हैं लोग 

'आनंद' कहाँ खो गया  जिससे  भी  पूछिए
दिल्ली कि तरफ हाथ उठाते  रहे हैं लोग

आनंद 
९ अप्रेल २०१२.

13 टिप्‍पणियां:

  1. मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
    क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग |
    बहुत खूब ।

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  2. मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
    क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग |
    .......बहुत खूब आनंद जी
    वाह! बेहतरीन.... ग़ज़ल के माध्यम से एक दम सही बात कही है आपने...

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  3. क्या कीजिये जो कोई दुआ काम न करे,
    मेरे लिए तो हाथ उठाते रहे हैं लोग |

    वाह!!!!!!!!!!!!!!!!!

    खूबसूरत गज़ल....

    बधाई आनंद जी.
    सादर.

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  4. मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
    क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग |.....shaandar

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  5. मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी,
    क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग |

    वाह ॥बहुत खूब ... अच्छी गजल

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  6. "जब चल पड़े फ़ना की राह, फिर क्या सोंचना..."


    बस , अब इसके बाद क्या चाहिए.......!!
    आराम करिए....बस आराम......!!!

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  7. वाह बहुत खूब ....

    'आनंद' कहाँ खो गया ? जिससे भी पूछिए,
    दिल्ली कि तरफ हाथ उठाते रहे हैं लोग |.............अच्छा हुआ आपने बता दिया की आप दिल्ली रहते हैं ......

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  8. क्या कीजिये जो कोई दुआ काम न करे,
    मेरे लिए तो हाथ उठाते रहे हैं लोग |

    वाह !!! आनंद जी आपकी गज़ल ने गुनगुनाने को मजबूर कर दिया. इस शेर पर विशेष दाद कबूल फरमायें

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  9. आप सभी मित्रों का हार्दिक आभार !

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  10. 'जलने का सलीका भी सीखाते रहे हैं लोग'

    वाह!

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