भाग-दौड़ के बीच कहीं कुछ ठहरा है
इश्क़ निठल्लों के बस का है खेल नहीं
किस्सागोई नहीं, रोग ये गहरा है
वो आँखों ही आँखों में कुछ बोले हैं
उनकी भाषा है और मेरा ककहरा है
एक बार हमने भी पीकर देखा था
वर्षों गुज़रे नशा अभी तक ठहरा है
हम भी वैसे हैं जैसी ये दुनिया है
मुझ पर शायद रंग ADHIK HI गहरा है
कुछ दस्तूर ज़माने के जस के तस हैं
मोहरें लुटती हैं, कोयले पर पहरा है
सब अपने हैं साहब किसको क्या बोलें
ये 'आनंद' समझिये, गूँगा बहरा है।
© आनंद