सोमवार, 6 जनवरी 2020

कहीं कुछ ठहरा है

सहरा में है शहर, शहर में सहरा है
भाग-दौड़ के बीच कहीं कुछ ठहरा है

इश्क़ निठल्लों के बस का है खेल नहीं
किस्सागोई नहीं, रोग ये गहरा है

वो आँखों ही आँखों में कुछ बोले हैं
उनकी भाषा है और मेरा ककहरा है

एक बार हमने भी पीकर देखा था
वर्षों गुज़रे नशा अभी तक ठहरा है

हम भी वैसे हैं जैसी ये दुनिया है
मुझ पर शायद रंग ADHIK HI गहरा है

कुछ दस्तूर ज़माने के जस के तस हैं
मोहरें लुटती हैं, कोयले पर पहरा है

सब अपने हैं साहब किसको क्या बोलें
ये 'आनंद' समझिये, गूँगा बहरा है।

© आनंद

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

लिए बैठी है...

एक दिन प्यार गुँथा हार लिए बैठी है
एक दिन हाथ में तलवार लिए बैठी है

जिंदगी कहने को मेरी है मगर गैरों से
इश्क़ कर बैठी है,आज़ार लिए बैठी है

इक मुखौटे को उतारा था बड़ी मुश्किल से
हाय ये फिर नया किरदार लिए बैठी है

दिल ये कहता कई बार कोई नज़्म पढ़ूँ
जिंदगी हाथ में अख़बार लिए बैठी है

एक मैं हूँ कि चलूँ भी तो लगूँ ठहरा सा
एक ये है मेरी रफ़्तार लिए बैठी है

लोग उपलब्धियाँ गिनते हैं, ठोकरों को नहीं
दर्द  का ज़िक्र ये बेकार लिए बैठी है

मुझको 'आनंद' न आया जी यहाँ जीने में
उम्र सब कर्ज़ के त्योहार लिए बैठी है

© आनंद



बुधवार, 13 मार्च 2019

बट्टा खाता

(१)

बचपन की हर जगह पर
हर राह
हर गली, नुक्कड़, नहर की पुलिया
बाज़ार
हर जगह ठिठकी खड़ी होती है एक याद
और लोग कहते हैं कि
दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है !

(२)

यूँ तो सब भागदौड़ में शामिल हैं
पर
सबसे ज्यादा जल्दी है
गाँवों को
शहर बन जाने की !

(३)

बिना जमा निकासी के 'बंद खाते'
जैसी होती हैं यादें
और हम कहते हैं कि
यादें हमारी जमापूँजी हैं
हमने अपनी तमाम पूँजी
बट्टे खाते में डाल दी है !

©आनंद

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

निकल पड़े

दुनिया भर का दर्द भगाने निकल पड़े
हम भी अपना जी बहलाने निकल पड़े

दिल की गलियों से जीवन की राहों तक
कदम कदम पर धक्के खाने निकल पड़े

त्यौहारों पर यादें भी घर आती हैं
मुँह से कुछ अशआर पुराने निकल पड़े

कल नुक्कड़ पर जाने किसका ज़िक्र हुआ
दिल में सारे दफ्न ज़माने निकल पड़े

सच के नाके पर जिनकी तैनाती थी
वो ले दे कर काम बनाने निकल पड़े

जिनको नाम कमाने की कुछ जल्दी थी
लेकर झूठ, फ़रेब, बहाने, निकल पड़े

कई पीढ़ियों से जो हमको लूट रहे
वो भी मुल्क़ मुल्क़ चिल्लाने निकल पड़े

सोशल नेटवर्किंग में घर की फिक्र किसे
सब बाहर की आग बुझाने निकल पड़े

हम देसी गुड़ हैं, जाड़ों भर अच्छे हैं
कुछ दिन का आनंद लुटाने निकल पड़े।

© आनंद

शनिवार, 22 सितंबर 2018

बीता साल...

कोंछ में जिंदगी के दिन भरकर
धरती ने लगा लिया
इसी दरमियान
सूरज का पूरा एक चक्कर,

जहाँ जहाँ तनिक छाया मिलती
वो दौड़ लगा देती
और जैसे सुस्ताने लगती, पाकर तपती धूप
कई बार मृत्यु अच्छी लगी जिंदगी से
तो कई बार लड़ी जाने वाली जंग ज्यादा भली लगी मृत्यु से

तुम्हारे काजल की स्याही को छाया बना हम
जी गए लंबे लंबे दुःख
दुखों के सफर में
अकेला न होना
सफर खत्म होते होते आखिर हो ही जाता है
सुखों का सफर !

आओ साथ मनाएँ
अपने सुखों और दुखों की वर्षगाँठें
कि
ये तुम्हारी ही मुहब्बत थी
जिसकी बदौलत मैं
सलामत बच सका
धरती के इस सालाना जलसे में !

© आनंद