शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती,
किसी गरीब की इज्ज़त नहीं लुटी होती |

कोई फुटपाथ पर भूखा नहीं सोया होता,
मेरी कलम से अगर रोटियां बटी होती |

मेरी ग़ज़ल है वो झुर्री भरा बूढा चेहरा,
कैसे इज्ज़त को छुपाये है इक फटी धोती |

भरी जवानी में भूखा नहीं सोया होता,
वक़्त से पहले कमर भी नहीं झुकी होती |

अगर ईमान बेंचकर वो कमाता दौलत,
ब्याह करने को नहीं बेटियाँ बची होती |

           ---आनंद द्विवेदी .

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

यहाँ हर इंसान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

मेरे जिस्मो जान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ
हैं दिले-नादान  से लिपटी हुई  तन्हाईयाँ

टूटते इन्सान को  ये  तोड़  देतीं  और भी
प्यार के परवान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

एक खंजर की तरह अहसास में चुभती रहें,
मेरे गिरहेबान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ

झनझनाकर टूटता हूँ कांच की मानिंद मैं,
मुस्कराती शान से, लिपटी हुई तन्हाईयाँ

मुझमे इन तन्हाइयों में फर्क है बारीक सा,
मेरी हर पहचान से लिपटी हुई  तन्हाईयाँ

आज कल 'आनंद' है, तन्हाइयों के देश में,
यहाँ  हर  इंसान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ