गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

आज हर मर्द ही शक़ में शुमार है यारों .

इस क़दर गिर गया अपना मयार है यारों
आज हर मर्द ही शक़ में शुमार है यारों

शाम होते ही सहम जाती है बेटी मेरी
शहर है  या कोई  ख़ूनी दयार  है यारों

कौन जाने किधर से चीख उठेगी अगली
ज़ेहन में आजकल दहशत सवार है यारों

गुनाहगार के संग सोच भी सूली पाए
मेरा जरा सा अलहदा विचार है यारों

हर तरफ शोर है गुस्सा है भले लोगों में
गोया सागर में शराफत का ज्वार है यारों 

आइये कर सकें भरपाई तो करदें उसकी 
क़र्ज़ बहनों का अभी तक उधार है यारों

 - आनंद

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

हादसों की दिल्ली ... सितम की राजधानी

जीवन रक्षक मशीन के सहारे
सफदरजंग अस्पताल की आई सी यू में
कुछ घंटे या फिर कुछ दिन और जियेगी एक लड़की
फिर या तो वह 'ठीक' हो जायेगी
या मर जायेगी


एक लड़की जो इस महान देश की ऐतहासिक राजधानी के
सबसे समृद्द इलाकों में से एक में
निकल पड़ी रात को घर से
बिना सायरन बजाती हुई गाड़ियों के काफिले के,
अकेले निकल पड़ी
केवल एक अपने पुरुष साथी के साथ
जुर्रत तो देखिये उस लड़की की
उसने समझा इस देश की राजधानी को शायद अपने गांव अपने घर की तरह सुरक्षित 
हर कोने हर नुक्कड़ हर संभव जगह पर घात लगाये बैठे  रहने वाले नर पिसाच
शायद छः थे वो
पैरामेडिकल कोर्स कर चुकी वह बहादुर लड़की जरूर लड़ी होगी
जी जान से किया होगा उसने विरोध
पर पहले उसे अधमरा कर दिया गया उसके साथी को भी लहूलुहान कर दिया गया
फिर एक -एक करके सब ने सिद्ध किया अपना पुरुष होना
और फिर जब दोनों हो गए अचेत
नहीं सह पाये अत्याचार
तो उन्हें मरा समझकर , चलती बस से ही
फेंक दिया गया एक फ्लाईओवर से नीचे ।

कैसी लगी यह कहानी
दर्दनाक है न ?
तो एक काम करो अपन-अपना कंप्यूटर ऑन करो
एक जगह है फेसबुक
वहाँ अपनी छवि चमकाते हैं हम सब मिलकर
देखते हैं कौन महिलाओं का सबसे बड़ा हितैषी साबित होता है
सामने रखी गरमागरम चाय सिप करते हुए
मुद्दे की गंभीरता से परचित कराते हैं 
देश और समाज को
आखिर हम जागरूक इंसान हैं भई !

जे एन यू के लड़के हैं न 
वो कर तो रहे हैं विरोध प्रदर्शन
"अब क्या करें जान दे दें क्या"
"और फिर मेरे जान देने से मसला हल हो जाए जान भी दे दें"

जान तो देती रहेंगी 
बच्चियां
औरतें 
अभी और न जाने कब तक ...
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’

आक्क थू
हाँ थूकता हूँ मैं
हम सबके ऊपर
अपने ऊपर भी !

-आनंद  

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

गैर को गैर समझ

गैर को गैर समझ यार को यार समझ
रब किसी को न बना प्यार को प्यार समझ

वक़्त वो और था जब हम थे कद्रदानों में
ये दौर और है इसमें मुझे  बेकार समझ

तू जो क़ातिल हो भला कौन जिंदगी माँगे
जिस तरह चाहे मिटा, मुझको तैयार समझ

बावरे मन ! तेरी दुनिया में कहाँ निपटेगी
वक्त को देख जरा इसकी रफ़्तार समझ

तेरा निज़ाम है, मज़लूम को  भी जीने दे
देर से ही सही इस बात की दरकार समझ

धूप या छाँव तो  नज़रों का खेल है प्यारे
दर्द का गाँव ही 'आनंद' का घर-बार समझ

- आनंद







रविवार, 16 दिसंबर 2012

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी ...


किसी की हँसी में शामिल हो जाऊं
याकि उदास हो जाऊं किसी को उदास जानकार,
ढेर सारी वो बातें सुनूं बैठकर
जिन में मैं कहीं नहीं रहूँ
याकि शामिल हो जाऊं एक लम्बी चुप्पी में,
रो पडू किसी को नाराज करके
याकि हंस दूं जब कोई मुझे नाराज़ समझे,
छुट्टी के दिन भी फोन को दिन भर चिपकाए घूमूं,
यह जानते हुए भी कि कोई फोन या मैसेज नहीं आएगा,
हज़ार उपाय करूँ किसी की नज़र में अच्छा होने के लिए
याकि बुरा हो जाऊं किसी की नज़र में
मगर उसका बुरा न होने दूं,
इतना पास रहूँ किसी के कि आदत बन जाऊं
याकि इतना दूर हो जाऊं कि बन जाऊं याद,
 
ऐसी ही अनगिनत छोटी-छोटी चाहतें लिए एक दिन
मर जाऊंगा
किसी बेहद आम इंसान की तरह 
ख़ामोशी से बिलकुल गुमनाम....! 

-आनंद  

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

मेरी हार


तुम्हारी जीत
हो सकती है
पर मेरा हारना नहीं है
कोई इत्तेफ़ाक,

हारना मेरा चुनाव है
बचपन में हारा साथ खेलने वालों से
स्कूल में ट्यूशन पढ़ने वाले साथियों से
घर में जब तक और कोई नहीं था तब तक माँ से ही हारता रहा
कभी कभार दिल भी हारा गाँव-गली में,
जरूरतों से हारकर बार-बार विस्थापित हुआ
मालिक से हारा
मकान मालिक से हारा
सरकार से हारा
चाटुकार से हारा
साहूकार से हारा
सच्चों से हारा
लुच्चों से हारा
बच्चों से हारा
मंहगाई से हारा
जग हंसाई से हारा  ...
एक लंबा इतिहास है मेरे हारने का
तुम न भी जीतते
तो भी मैं हारता
बस फर्क यही है कि इस बार खुद को ही हार गया मैं...

क्योंकि जब तुम मिले
कुछ और नहीं बचा था मेरे पास सिवाय
मेरे अपने होने के अहसास के... !

 - आनंद