रविवार, 14 जून 2015

विक्रम बैताल

एक न एक दिन खाली करनी ही होंगी 
वो सारी दीवारें
जिनमें टंगे टंगे धूल खा रहे हैं
कल्पनाओं के अगनित चित्र
और ढेर सारी यादें, 
मगर 
घर में नहीं बची है
इन्हें रखने के लिए एक भी सन्दूक
जैसे यादों में
नहीं बची है अब 
एक भी उम्मीद,

बैताल सी यादें
अक्सर कुछ न कुछ पूछती हैं मुझसे
मैं अक्सर पकड़ा देता हूँ उनको भी वही जवाब
जिनसे हमेशा बहलाया करता हूँ खुद को
मसलन
तुम मेरे होते तो मेरे होते
वर्तमान ही सत्य है बाकी सब भ्रम है
जीवन एक अभिनय है
अभिनय में न कोई मिलता है... न बिछुड़ता
आदि आदि ,

यादें फिर भी नहीं जाती
किसी वृक्ष पर
यादें फिर भी नहीं करती
मेरे सर के टुकड़े टुकड़े,

मैं और यादें
आज के विक्रम बैताल हैं
एक दूसरे के बिना अस्तित्वहीन
एक दूसरे के साथ को अभिशप्त

- आनंद


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