पचीस साल से थी
एक बुराई की तरह...
साथ ...मेरी सिगरेट !
अच्छाइयां इतना कहाँ रूकती हैं
छोड़ दिया एक झटके में
और महसूस किया
कि कैसे तुमने छोड़ दिया था ख्वाबों के ठीक बीच में ...
अचानक बस एक सन्देश से
बिना कुछ कहने का अवसर दिए
कई बार किया होगा मन बस एक बार बात करने का
जैसे मेरा करता है कभी कभार एक कश लेने का
मगर कुछ भय और कुछ अहम्
भय कि फिर से लत न पड़ जाए
अहम् कि मैंने त्याग दिया
और इस तरह किसी एक पल में
अचानक लिया गया निर्णय
हो जाता है स्थायी ...
असल में
छोड़ना है ही आकस्मिक क्रिया
धीरे धीरे कुछ नहीं छूटता
धीरे धीरे तो कसता है
हर फंदा
और फिर एक दिन अचानक
छूट जाता है वर्षों का साथ
जैसे कि मेरी सिगरेट,
कुछ जिंदगियाँ भी तो सिगरेट जैसी होती हैं
हमेशा सुलगकर सुकून देती
और कभी भी अचानक छोड़ दिए जाने को तैयार !
- आनंद
बहुत सुंदर रचना .....
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