जब से मैं किसी राह का पत्थर नहीं रहा
मुझको भी ठोकरों का कोई डर नहीं रहा
घर का भी कोई वास्ता दिल से जरूर था
देखो न, मेरा घर भी मेरा घर नहीं रहा
दैरो-हरम बनाये, जिसने महल बनाये
उनके सरों पे ठीक से छप्पर नहीं रहा
इंसान ने इंसान का ये हाल किया है
शैतान से ऐसा तो कभी डर नहीं रहा
हँस हँस के जी रहा हो या रो रो के जिए वो
'आनंद' मगर तय है, अभी मर नहीं रहा
- आनंद
मुझको भी ठोकरों का कोई डर नहीं रहा
घर का भी कोई वास्ता दिल से जरूर था
देखो न, मेरा घर भी मेरा घर नहीं रहा
दैरो-हरम बनाये, जिसने महल बनाये
उनके सरों पे ठीक से छप्पर नहीं रहा
इंसान ने इंसान का ये हाल किया है
शैतान से ऐसा तो कभी डर नहीं रहा
हँस हँस के जी रहा हो या रो रो के जिए वो
'आनंद' मगर तय है, अभी मर नहीं रहा
- आनंद
बहुत बढ़िया ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंbhot khub wah hwaaaa
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गजल ...
जवाब देंहटाएंbahut khoob
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंहर शेर दिल में सीधा उतर जाता है ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब गज़ल है ...
Harek pankti dilko chhooti huee lagee! Bahut dinon baad darsr karah ke ek aalekh mere blog pe likha hai,zaroor padhen!
जवाब देंहटाएंkya baaht hai aanand ji..kamaal ki ghazal likhi hai...bahut badhiya!
जवाब देंहटाएंLajawab...
जवाब देंहटाएंbahut sunder.............bhai ji
जवाब देंहटाएंvisit ...plz
http://anandkriti007.blogspot.com
शुक्रिया मित्रों !
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