शनिवार, 23 मार्च 2013

"ई इलहाब्बाद है भइया"

           

       ७ फरवरी २०१३ को दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में 'दखल प्रकाशन' के कार्यक्रम में जब विमल चंद्र पाण्डेय का संस्मरण "ई इलहाब्बाद है भइया"  हाथ में आया था तो दिमाग में यह विचार आया कि क्यों न विमल जी से पुस्तक पर उनके हस्ताक्षर ले लिये जाएँ, हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने कहा था कि कैसी लगी पढ़ के बताइयेगा  मैंने भी कहा था कि जी जरूर,  परन्तु यह ठीक वैसे ही था जैसे कोई आपसे पूछे 'और भाई क्या हाल-चाल' और आप बिना एक पल गँवाए कहें कि 'जी सब ठीक है मेहरबानी आपकी'। अपनी नियमित पढ़ने की आदत के बावजूद पूरी फरवरी पुस्तक छू नहीं पाया (अलबत्ता अजेय जी के कविता संग्रह और शम्भू यादव जी के कविता संग्रह की कुछ कवितायेँ पढ़ी भी थी जिनपर फिर कभी चर्चा करूँगा) और जब  पुस्तक हाथ आयी तो फिर छोड़ने का मन नहीं हुआ।
मैं न तो कोई साहित्यिक सितारा हूँ न हो कोई आलोचक एक सामान्य पाठक की भी एक नज़र होती है और मैं जो भी कह रहा हूँ वह सब उसी नज़र ने देखा है समझा है। मेरे अनुसार एक अच्छा संस्मरण वही है जब वह अपने काल-खंड (जिसकी स्मृति वह व्यक्त करता है) का समग्र चित्र प्रस्तुत करे उसमें व्यक्ति, विचार, देशकाल, समाज और साहित्य सभी न केवल मौजूद हों वरन उनका अनुपात भी ऐसा हो कि एक चीज़ की अधिकता पाठक को खटके नहीं ....और विमल जी का यह संस्मरण इन कसौटियों पर पूरी तरह खरा है।   
कथानक का प्रवाह ऐसा है कि एक बार आप इसको स्पर्श भर करें ये आपको अपने साथ बहा लेगा।  पत्रकारिता की जमीनी हकीक़त को परत दर परत खोलता हुआ संस्मरण जैसे ही थोड़ा सा आगे बढ़ता है आप से यह विस्मृत हो जाता है कि कि इसको लिखने वाला कौन है और रह जाता है तो बस सामने कथानक। मनुष्य की आदतों को देखते हुए विमल जी जिस बारीकी से उसके चरित्र की पड़ताल करते हैं वह अद्भुत है  उदाहरण के लिये ;
         "चाचा जी के घर में वह घर के मुखिया थे और इस बात को बहुत सीरियसली लेते थे । मेरे घर में मेरे पिताजी ठीकठाक लोकतान्त्रिक आदमी हैं और अखबार आने पर उनसे कोई भी सम्पादकीय पृष्ठ माँग सकता है -जब वह मुखपृष्ठ पढ़ रहे हों, जबकि चाचा जी के कब्जे से अखबार तब तक नहीं पाया जा सकता जब तक वह पूरा पढ़ न चुके हों "
लेखक की अपनी एक दृष्टि है और वह बड़ी सहजता से मगर बहुत गहरे तक अपने आसपास की हर चीज़ और घटना देखती है  जैसे कि ;
"प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बिकुल युवा और युवतर लोग जो विषय से प्यार करने की बजाय उस से लड़ते रहते हैं मेरे मन में कई कारणों से डर पैदा करते हैं"
अपने बछरावां (मेरे गृह जनपद रायबरेली का एक कस्बा)  के दिनों में यद्यपि मैं कुछ पत्रकारों के संपर्क में रहा हूँ मगर असल बात यह है कि पत्रकार नामक एक विशेष किस्म के प्राणी को मैं इस पुस्तक के माध्यम से ही समझ पाया हूँ विमल जी के ही शब्दों में ;
"मैंने उससे पूछा कि उसका अखबार कहाँ से निकलता है और वह क्या कवर करता है । उसने बताया कि वह सबकु छ कवर करता है । मैंने शक से उसकी ओर देखा और पूछा कि उसका अखबार किस भाषा का है । उसने 'द न्यूज क्रिटिक टाइम्स' अपनी जेब से निकाला, देवनागरी में लिखा हुआ यह नाम 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' को मात दे रहा था और सब कुछ कवर करने वाले इस पत्रकार ने चार पन्ने के अपने अखबार को चार बार मोड़ कर अपनी पिछली जेब में रखा था।"
" मुख्य तौर पर दो तरह के पत्रकार थे, एक तो, चार पन्ने वाले अखबारों और लोकल न्यूज चैनलों के , जिनमें से ज्यादातर के ईमेल आईडी भी नहीं थे और ईमेल जैसी फालतू चीजों के बारे में उनका रवैया तन्नी गुरू वाला हुआ करता था कि जिसको गरज होगी खुदै आएगा । सभी तो नहीं मगर इसमें ज्यादातर पत्रकार, पत्रकार वार्ताओं में मिलने वाले गिफ्ट पर अपनी नज़रें गड़ाए रहते, कुछ लोग खाने के मेन्यू को लेकर भी बहुत चिंतित रहते। जब किसी बड़ी कंपनी की प्रेस कांफ्रेंस में नामों के आगे हस्ताक्षर कराकर सिर्फ़ बड़े अखबारों या सेटेलाइट चैनलों के पत्रकारों को ही गिफ्ट दिए जाते और इन पत्रकारों के कार्ड देखने के बाद इनसे माफ़ी मांग ली जाती तो ये पत्रकार सारा दिन सुभाष चौराहे (जिसे पत्रकार चौराहा भी कहा जाता था ) पर यह कहते हुए निकाल देते की देश में अविश्वास का जो माहौल बन रहा है वह इसकी एकता और अखंडता के लिए भरी खतरा है।"..................दूसरे तरह के पत्रकार अमरउजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान जैसे अखबारों के हुआ करते थे जिनमे ज्यादातर खाने के प्रति कोई रूचि नहीं दिखाते थे चाहे मेन्यू कितना भी अच्छा हो। इनके दोस्त तय थे, हाय हेलो करने वाले चेहरे तय थे, यहाँ तक कि इनके सवाल भी तय थे" ..... "मैंने ऐसे एकाध पत्रकारों से बात करने की कोशिश की थी लेकिन मेरा फिजिकल अपीयरेंस कुछ ऐसा था कि मैं बहुत ध्यान देने लायक आदमी नहीं दिखायी देता था और वे आमतौर पर पहली राय फिज़िकल अपीयरेंस को देख कर ही बनाते थे।"
        विमल जी को मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ  जो कुछ भी जाना है इस संस्मरण के माध्यम से ही जाना है मगर उनमे एक विचार है और विशेष बात यह है कि उनका विचार शुरू से अंत तक कहीं दुराग्रह का शिकार नहीं होता। वो दूसरों की न समझ आने वाली बातों से असहमत होते हैं मगर उनसे चिढते नहीं उनके प्रति कोई गांठ नहीं रखते बल्कि अपनी बात कहते हैं और दूसरे की बात को तर्कों के आधार पर देखने की कोशिश करते हैं शायद यही कारण है कि इलाहाबाद में उनके जिक्र में संघ से जुड़े लोगों को भी स्थान मिला है वह भी बिना किसी झिझक और कृतिम दूरी के ...एक शानदार चुटकी देखिये :
     "मैं संघ की कार्यप्रणाली का भले विरोधी होऊं, वहाँ का स्वादिष्ट भोजन नहीं भूल सकता। जब भोजन सामने आता तो मेरे आसपास के सभी लोग श्रद्धा से हाथ जोड़कर मंत्र पढ़ते और मंत्र न जानने वाला मूढ़ बनकर बैठा उनके चेहरे को निहारता रहता। भोजन की थाली में पतली-पतली गर्म रोटियाँ होतीं जिनसे भाप निकलती रहती, एक कटोरी में डाल होती जिसके ऊपर घी की हलकी परत होती, एक तरफ बिना लहसुन प्याज की सात्विक सब्जी होती जिसमे देखने पर कतई पता नहीं चलता (और न ही खाने में) कि इसमें लहसुन प्याज की कमी है एक प्लेट में सलाद इतने सलीके से रखा होता कि उसे खाने से ज्यादा देखने का मन होता। यह भोजन मंत्र पढ़ा जाना डिजर्व करता था ... और जब वे लोग मंत्र पढ़ते तो मैं भी उनकी देखा देखी बुदबुदा लेता ताकि उन्हें मेरे मंत्र न आने और खाने पर मंत्रमुग्ध हो जाने का अंदाजा न लगे। "बहुत सही खाना मिला है आज बहुत दिनों के बाद" बुदबुदाने के बाद मैं उनकी देखा देखी खाने को बहुत संयम से खाता और मौका मिलते ही अपनी बग़ल में बैठे विवेक से कहता ;"साला की इतनी इच्छा तो चिकन भी नहीं जगाता जितना ये सात्विक खाना जगा रहा है।" विवेक फुसफुसाकर डपट देता, "साले ये शब्द न बोलो नहीं तो अगली बार से तुमको भगा दिया जाएगा।" मैं चुपचाप खाने लगता । मैंने एकाध बैठकें भी आधी अधूरी अटेंड  कीं मगर मुझे कुछ खास पता नहीं चला कि वे लोग मोटा-मोटी किस मुद्दे पर चर्चा करना चाहते हैं । देश पर बात करते करते बात भोजन पर आ जाती और हर बार की बैठक में यही तय होता कि अगली बैठक का समय क्या होगा। मैंने इस बात की चर्चा वहाँ के लोगों से की कि आप लोग सिर्फ़ टाइम पास करते हैं तो किसी संघी ने मुझे एक दोहा सुनाया जो उसके हिसाब से संघ के बारे में बताता था ; किसने सुन्य था ये तो याद नहीं मगर दोहा कुछ यूँ था ,
"संघ के हैं तीन आयाम - भोजन, बैठक और विश्राम।"
मैं संघ के बारे में पहली बार किसी बात से शत-प्रतिशत सहमत हुआ।"
     साहित्यिक पृष्ठभूमि और पेशे से पत्रकार होने की वजह से विमल जी के इस संस्मरण में भी ज्यादातर बातें और विचार इन्हीं दोनों क्षेत्रों पर केंद्रित हैं और बहुत सुखद लगा यह जानना कि वह साहित्य की आत्मप्रचार वाली शैली से दूर हैं अपनी उपलब्धियों पर इतराये नहीं बल्कि बहुत सहजता से लिया साहित्यकारों  के एक विशेष दुर्गुण आत्ममुग्धता को पहचाना और उससे बचे ।  इसका बहुत बड़ा श्रेय अगर  इलाहाबाद के  'मुखातिब' जैसे कार्यक्रमों को देने का अवसर आया तो कभी संकोच नहीं किया।
साहित्य के  अपने अनुभव लिखते हुए विमल जी कहते हैं  "दरअसल अपने मन में एक असधारण छवि बनाकर मैं जिन कुछेक बड़े लेखकों से मिला था वो छवि बहुत बुरी तरीके से इसलिये टूटी थी कि ये बड़े लेखक अपनी असल जिंदगी में एक सामान्य इंसान तक नहीं रह गए थे । उनकी रचनाओं में उनके आसपास एक ऐसा अल्प-पारदर्शी मटमैले रंग का घेरा बना दिया था कि उन्हें अव्वल तो दुनिया दिखायी ही नहीं देती थी और कभी थोड़ी बहुत दिखती भी थी तो अपने रचनाओं के रंग की ही । ये दिन में १४ घंटे अपनी रचनाओं के बारे में ही बात करते और इस बात को बार-बार दोहराने से इसे खुद ही सत्य मान बैठे होते थे कि वे ही अपने समय के सबसे प्रगतिशील लेखक हैं ।"..............आत्ममुग्धता एक ऐसी बीमारी थी जिसके लक्षण शुरू-शुरू में एकदम पता नहीं चलते थे और अंतिम चरणों में पता चलने पर इसका इलाज़ दुर्भाग्य से मौजूद नहीं था। ...... अपनी रचनाओं के बारे में सोचना और उनपर बात करना बुरी बात नहीं है लेकिन उसके असर के बारे में जाने बिना खुद उसकी तारीफ में जुटे रहना, दुसरे सभी लेखकों को खुले मन से गरियाना, दुनियादारी के दख़ल से कटे रहकर सिर्फ लिखने को बड़ा महान  काम मानना, ये कुछ ऐसे दृश्य थे जो मन में जुगुप्सा पैदा करते थे उनकी संगति से लाख गुना बेहतर उनकी किताबें होती हैं और मैं पढ़ता रहा।"
'यारों के यार' (जी हाँ मैं बहुत सोच समझकर यारों के यार बोल रहा हूँ)  विमल जी का एक संस्मरण उस समय का जब उनको  नवलेखन का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की धोषणा हुई थी ;
"मेरे दोस्तों की रेंज़ बहुत बड़ी है और हर तरह के दोस्त मुझे बहुत अज़ीज़ हैं मुझे उस समय की मुख्यतः दो तरह की प्रतिक्रियाएं याद हैं ... दोस्तों के एक समूह ने पूछा,  'पैसा भी मिलेगा ?'
    मैंने कहा, हाँ, पचीस हज़ार रूपये मिलेंगे और मेरी पहली किताब भारतीय ज्ञानपीठ से छपकर आएगी।'
    प्रतिक्रिया - अबे किताब जाय गांड मराने, पचीस हज़ार रुपया ...! सोचो कितने दिन तुम पार्टी दे सकते हो बहुत सही गुरु।'
दुसरे समूह ने पूछा, 'किताब भी छपेगी न ?'
मैंने कहाँ, 'हाँ, किताब भी छपेगी और पचीस हज़ार रूपये भी मिलेंगें।'    
प्रतिक्रिया - 'अरे महराज पैसे वैसे को गोली मारिये, ज्ञानपीठ से पहली किताब का मतलब समझ रहे हैं ? बहुत बधाई हो !"
    अगर मैं इस किताब की अपनी पसंदीदा बातें लिखने लगूंगा तो लगभग मुझे सारी की सारी किताब ही यहाँ लिखनी पड़ जायेगी इलाहाबाद के हर महत्वपूर्ण अंग की आंतरिक झांकियां हैं इसमें, इलाहाबाद के वकील (बाप रे)  वहां की 'बकैती' और माघ मेला  ..... माघ मेला कैसे इलाहाबाद के लिए एक अवसर लेकर आता है ...बाबाओं के प्रचार-प्रसार की भूख और उनका फायदा उठाते पत्रकार, कल्पवासियों की स्थिति और  उस समयावधि के लिए विशेषरूप से उग आई संस्थाएं कैसे सबका शोषण करती हैं  आदि-आदि !
  मेरा मन कर रहा है की मैं और बहुत कुछ लिखूं  मगर विवेक कह रहा है की अब मुझे अपनी बात समाप्त कर देनी चाहिए ...मगर बंद करने से पहले एक व्यक्ति के रूप में विमल जी के सबसे नाज़ुक हिस्से 'प्रेम' को न देखा जाए तो शायद यह उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी ......
     "सपनों के उस सफ़र की उम्र बहुत कम थी और मैं अपनी खुशियों के साथ जितने दिन भी रहा, वे मेरी जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे। मैं उसके शहर जाता और हम साथ-साथ बादलों पर घूमते ...उसका शहर उसकी ही तरह खूबसूरत था और वहाँ के बादल बहुत पास होते। कुछ तो इतने नज़दीक कि आँखों में उतर आते। मैं उन दिनों बहुत जल्दी रो पड़ता था उसने मुझे बिलकुल अपने जैसा कर लिया था"
विमल जी ये अंतिम पंक्तियाँ मेरी हैं बेशक आपने लिखी हों ....................
अंत में 'दखल प्रकाशन' को अपने प्रवेशांक के साथ ही इतनी बेहतरीन कृति समाज को देने के लिये दिल से आभार !


- आनंद कुमार द्विवेदी         


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