शनिवार, 8 सितंबर 2012

फ़ुरसत में आज़ सारे जमाने का शुक्रिया

इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को  समंदर से  मिलाने  का शुक्रिया  

मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का  फ़र्ज़  निभाने का शुक्रिया 

रह रह  के तेरी खुशबू उमर भर  बनी रही
लोबान  की  तरह से   जलाने का शुक्रिया  

इक भूल  कह  के  भूल ही  जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न   खूब  निभाने  का  शुक्रिया

आहों  में  कोई और हो   राहों  में कोई और
ये साथ  है   तो  साथ में  आने  का शुक्रिया 

दुनिया  भी बाज़-वक्त   बड़े  काम की लगी
फ़ुरसत में  आज  सारे ज़माने  का शुक्रिया

जितने थे  कमासुत  सभी शहरों में  आ गए 
इस  मुल्क  को 'गावों का' बताने का शुक्रिया 

ना  प्यार  न सितम  न  सवालात  न झगड़े 
'आनंद'   बे-वजह जिए जाने   का   शुक्रिया 


- आनंद
०४-०९-२०१२
              -


6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    एक खूबसूरत गज़ल सुनाने का शुक्रिया....

    सादर
    अनु

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  2. जितने थे कमासुत सभी शहरों में आ गए
    इस मुल्क को 'गावों का' बताने का शुक्रिया

    खूबसूरत गज़ल कहने का शुक्रिया

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  3. आपका शुक्रिया... शुक्रिया... शुक्रिया... इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए

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  4. रह रह के तेरी खुशबू उमर भर बनी रही
    लोबान की तरह से जलाने का शुक्रिया
    इक भूल कह के भूल ही जाना कमाल है
    दस्तूर-ए-हुश्न खूब निभाने का शुक्रिया।

    वाह आनंद जी क्या बात है वाकई आपका यह खूबसूरत गजल कहने का शुक्रिया...

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  5. ऐसी प्यारी गज़ल पढवाने का शुक्रिया ....

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  6. कमाल की गज़ल है आनंद जी....
    हर शेर मुकम्मल..

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