शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं






बेख़ौफ़ होके, .. सजने संवरने लगा हूँ मैं,
जब से तेरी गली से गुजरने लगा हूँ मैं !

कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं  !

गज़लों में आगया कोई सोंचों से निकल कर,
शेर-ओ-शुखन से प्यार सा करने लगा हूँ मैं !

वो एक नज़र हाय क्या वो एक नज़र थी ,
रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं!

मुझको  कोई पहचान न बैठे  , इसी डर से  ,
अब गाँव को भी,  शहर सा करने लगा हूँ मैं !

'आनंद' फंस गया है,  फरिश्तों के फेर में ,
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं! 

   --आनंद द्विवेदी  २२-०४-२०११ 

9 टिप्‍पणियां:

  1. मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
    अब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !
    'आनंद' फंस गया है, फरिश्तों के फेर में ,
    अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं!

    बेहतरीन शेर...खूबसूरत ग़ज़ल....

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  2. कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
    वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
    बहुत ज़रूरी है यह भी
    वरना खुद को खुद से झूठ बोलना पड़ता है...
    बहुत अच्छी अभिव्यक्ति होती है आपकी

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  3. कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
    वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
    खुबसूरत शेर , मुबारक हो

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  4. बहुत सुंदर ग़ज़ल है ...!!
    एक एक शेर बहुत उम्दा ...!!
    बधाई एवं शुभकामनाएं .

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  5. मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
    अब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !....बेहद सुन्दर गज़ल ... आनंद जी बधाई इस सुन्दर रचना के लिए...

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  6. ऐसी रचनाएं अच्‍छी लगती हैं।

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