जब से तेरी गली से गुजरने लगा हूँ मैं !
कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
वो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
गज़लों में आगया कोई सोंचों से निकल कर,
शेर-ओ-शुखन से प्यार सा करने लगा हूँ मैं !
वो एक नज़र हाय क्या वो एक नज़र थी ,
रह रह के अपनी हद से गुजरने लगा हूँ मैं!
मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
अब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !
'आनंद' फंस गया है, फरिश्तों के फेर में ,
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं!
--आनंद द्विवेदी २२-०४-२०११
मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
जवाब देंहटाएंअब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !
'आनंद' फंस गया है, फरिश्तों के फेर में ,
अब जाँच परख खुद की भी करने लगा हूँ मैं!
बेहतरीन शेर...खूबसूरत ग़ज़ल....
.खूबसूरत ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंbhut khubsurat gazal...
जवाब देंहटाएंकुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
जवाब देंहटाएंवो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
बहुत ज़रूरी है यह भी
वरना खुद को खुद से झूठ बोलना पड़ता है...
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति होती है आपकी
कुछ काम, जो सच्चाइयों को नागवार थे ,
जवाब देंहटाएंवो झूठ बोल बोल कर, करने लगा हूँ मैं !
खुबसूरत शेर , मुबारक हो
waah bahut khubsurat gazal ..............
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल है ...!!
जवाब देंहटाएंएक एक शेर बहुत उम्दा ...!!
बधाई एवं शुभकामनाएं .
मुझको कोई पहचान न बैठे , इसी डर से ,
जवाब देंहटाएंअब गाँव को भी, शहर सा करने लगा हूँ मैं !....बेहद सुन्दर गज़ल ... आनंद जी बधाई इस सुन्दर रचना के लिए...
आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्वागत है
जवाब देंहटाएंhttp://tetalaa.blogspot.com/
ऐसी रचनाएं अच्छी लगती हैं।
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